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________________ अ०११/प्र०८ षट्खण्डागम/७०५ ८. षट्खण्डागम में सोलहकल्पों ('कल्प' नामक स्वर्गों ) की मान्यता यापनीयमान्यता के विपरीत है। यापनीयमत में बारह कल्प माने गये हैं। ९. षट्खण्डागम में नौ अनुदिश नामक स्वर्गों का उल्लेख भी यापनीयमत के विरुद्ध है। यापनीय मत में इनका अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया है। १०. षट्खण्डागम में भाववेदत्रय, और वेदवैषम्य स्वीकार किये गये हैं, यापनीयमत में इनका निषेध है। ११. षट्खण्डागम में 'मणुसिणी' शब्द का प्रयोग द्रव्यस्त्री और भावस्त्री, दोनों अर्थों में किया गया है। तदनुसार आदि के पाँच गुणस्थानों के प्रसंग में वह द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों का वाचक है, किन्तु शेष गुणस्थानों के प्रसंग में केवल भावस्त्री का। यापनीयसम्प्रदाय के 'स्त्रीनिर्वाणप्रकरण' में 'मनुष्यिनी' या 'मानुषी' शब्द का प्रयोग केवल द्रव्यस्त्री के अर्थ में किया गया है। ये प्रमाण सिद्ध करते हैं कि षट्खण्डागम न तो कपोलकल्पित उत्तरभारतीयसचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा का ग्रन्थ है, न सचेलाचेलमिश्रमार्गी यापनीयसम्प्रदाय का, न एकान्त-सचेलमार्गी श्वेताम्बरसम्प्रदाय का, अपितु एकान्त-अचेलमार्गी दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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