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७०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११/प्र०८
उपसंहार षट्खण्डागम के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण सूत्र रूप में
अन्त में उन प्रमाणों का सूत्ररूप में संकलन कर रहा हूँ, जिनसे सिद्ध होता है कि षट्खण्डागम दिगम्बर-परम्परा का ही ग्रन्थ है, उसकी रचना दिगम्बराचार्यों ने ही की है। वे इस प्रकार हैं
१. श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों की स्थविरावलियों और साहित्य में न तो षट्खण्डागम के कर्ता (धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि) के नामों का उल्लेख है, न षट्खण्डागम का, न षट्खण्डागम की रचना के इतिहास का कोई विवरण है, न ही अर्धमागधी प्राकृत में षट्खण्डागम की कोई प्रति उपलब्ध है।
२. उक्त आचार्यों के नाम दिगम्बरपट्टावली और दिगम्बरसाहित्य में अनेकत्र उपलब्ध हैं। षट्खण्डागम के कर्ताओं के रूप में उनका उल्लेख है और षट्खण्डागम की रचना का इतिहास दिगम्बरसाहित्य में वर्णित है। शौरसेनी प्राकत में रचित षटखण्डागम ग्रन्थ की ताड़पत्रीय प्रतियाँ मूडविद्री के दिगम्बरमठ में उपलब्ध हुई हैं। दिगम्बराचार्यों ने उस पर टीकाएँ लिखी हैं। तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थराजवार्तिक में उसका अनुसरण किया गया है। गोम्मटसार जैसा महान् ग्रन्थ षट्खण्डागम के ही आधार पर रचा गया है।
३. षट्खण्डागम की रचना यापनीयसम्प्रदाय की उत्पत्ति से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व हो चुकी थी।
४. षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणा-अनुयोगद्वार का ९३ वाँ सूत्र स्त्रीमुक्तिनिषेधक है, जब कि यापनीयमत स्त्रीमुक्तिसमर्थक था।
५. षट्खण्डागम का गुणस्थानसिद्धान्त यापनीयसिद्धान्तों के सर्वथा विरुद्ध है। इससे निम्नलिखित यापनीय-मान्यताओं का निषेध होता है : मिथ्यादृष्टि की मुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, शुभाशुभक्रियाओं में प्रवृत्त लोगों की मुक्ति, सम्यग्दृष्टि की स्त्रीपर्याय में उत्पत्ति तथा स्त्री की तीर्थंकरपदप्राप्ति।
६. षट्खण्डागम में तीर्थंकरप्रकृति-बन्धक सोलहकारणों की स्वीकृति यापनीयमान्यता के विरुद्ध है, क्योंकि यापनीयमत में बीस कारण मान्य हैं।
७. षट्खण्डागम में सवस्त्र स्थविरकल्प की अस्वीकृति यापनीयमत की अस्वीकृति है।
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