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________________ अ०११/प्र०८ षट्खण्डागम/७०३ स्त्रीवेद या पुरुषवेद के उदय से होता है। और उसका उदय जीव के किसी आभ्यन्तर परिणामविशेष के निमित्त से होता है। तात्पर्य यह कि कर्मोदय के निमित्तभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव १५५ इन पाँच प्रत्ययों में से भाव के निमित्त से उक्त नोकषायरूप भावस्त्रीवेद या भावपुरुषवेद का उदय होता है। वह भाव क्या है? यह प्रश्न उत्पन्न होने पर इसका समाधान सरलतया उपलब्ध हो जाता है। समाधान यह है कि जिस भाव या परिणाम से पुरुषवेद, स्त्रीवेद या नपुंसकवेद का बन्ध होता है, वही परिणाम यदि उत्तरभव के प्रथमसमय में जीव में उत्पन्न होता है, तो उससे सत्ता में स्थित नोकषायरूप भावपुरुषवेद, भावस्त्रीवेद या भावनपुंसकवेद का उदय हो जाता है, क्योंकि इन वेदों का उदय कराने में उसी जाति के परिणाम निमित्त हो सकते हैं, जिस जाति के परिणामों से उनका बन्ध होता है, अन्य कोई परिणाम निमित्त नहीं हो सकते। शास्त्रों में ऐसा कथन भी है। उदाहरणार्थ, मिथ्यात्वपरिणाम-विशेष से नपुंसकवेद का और अनन्तानुबन्धीकषाय-परिणामविशेष से स्त्रीवेद का बन्ध बतलाया गया है और सम्यग्दृष्टि जीव में स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के उदय का निषेध किया गया है,५६ इससे सिद्ध है कि मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीजनित परिणामों से ही नपुंसकवेद और स्त्रीवेद का उदय होता है। ऐसे परिणाम विग्रहगति में संभव हैं, क्योंकि उसमें औदारिक अंगोपांगनामकर्म का बन्ध होता है। अंगोपांगनामकर्म में स्त्री, पुरुष और नपुंसक शरीर के अंगोपांग शामिल हैं।१५७ इनका बन्ध उन्हीं परिणामों से होता है, जिनसे नोकषायरूप स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेद का। अतः क्वचित् अपवादस्वरूप जो जीव उत्तरभव में द्रव्यपुरुष होनेवाला है, उसमें उत्तरभव की विग्रहगति में नोकषायरूप स्त्रीवेद या नपुंसकवेद का उदय हो जाता है। इसी प्रकार जो जीव उत्तरभव में द्रव्यस्त्री होनेवाला है, उसमें उत्तरभव की विग्रहगति में नोकषायात्मक पुरुषवेद या नपुंसकवेद उदय में आ जाता है। इस तरह वेदवैषम्य घटित होने की यह कर्म-सिद्धान्त-व्यवस्था उपर्युक्त आगमवचनों से सिद्ध होती है। १५५. "कर्मणां ज्ञानावरणादीनां द्रव्यक्षेत्रकालभवभावप्रत्ययफलानुभवनं प्रति प्रणिधानं विपाक विचयः।" सर्वार्थसिद्धि ९/३६/८९०/ पृ.३५४-३५५। १५६. “निर्वृत्त्यपर्याप्तासंयते स्त्रीवेदोदयो न हि, असंयतस्य स्त्रीत्वेनानुत्पत्तेः। षण्ढवेदोदयोऽपि च न हि, षण्ढत्वेनापि तस्यानुत्पत्तेः।" जीवतत्त्वप्रदीपिका/ गोम्मटसार-कर्मकाण्ड/ गा.२८७ । १५७. "ओरालियसरीर-हुंडसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-असंपत्तसेवट्टसंघडण-उवघात-पत्तेयसरीराणं पि सोदय-परोदओ, विग्गहगदीए उदयाभावे वि बंधुवलंभादो।" धवला /ष.खं.। पु.८/ ३,१०२ / पृ.१६४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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