________________
७०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०११/प्र०८ इन कथनों से यह सामान्य नियम प्रकट होता है कि पूर्व भव की आयु के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में जिस नोकषायरूप भाववेद तथा नामकर्मरूप द्रव्यवेद का बन्ध होता है, उन्हीं का उदय उत्तरभव में होता है।५३ ऊपर कहा गया है कि "योनिमती तिर्यंच में उत्पन्न होनेवाले जीव के, पूर्वपर्याय के अन्त में पुरुष व नपुंसक वेद का बन्ध नहीं होता।" यहाँ योनिमती शब्द से स्पष्ट है कि द्रव्यवेद-नामकर्म का बन्ध भी पूर्वपर्याय के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में होता है। तथा नोकषायरूप भावपुरुषादिवेद एवं नामकर्मरूप द्रव्यपुरुषादिवेद का बन्ध समान परिणाम से होता है, क्योंकि मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी के उदयाभाव में जैसे नोकषयारूप स्त्री-नपुंसक-वेद का बन्ध नहीं होता, वैसे ही नामकर्मरूप स्त्री-नपुंसकवेद का भी बन्ध नहीं होता।५४ इसलिए जब नोकषयारूप पुरुषादिभाववेद के बन्धयोग्य परिणाम होता है, तब उसके साथ नामकर्मरूप पुरुषादिद्रव्यवेद भी बँधता है। पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में भी ऐसा ही होता है। अतः उत्तरभव में जिस भाववेद और द्रव्यवेद का उदय होना है, वह सामान्यतः पूर्वभव में ही निर्धारित हो जाता है। इसलिए उत्तरभव में नोकषायरूप भाववेद के अनुसार द्रव्यवेद की रचना होती है, यह मान्यता आगमविरुद्ध है।
किन्तु उत्तरभव में उदय में आनेवाले भाववेद और द्रव्यवेद का पूर्वभव में निर्धारित होना एक सामान्य नियम है। इसका अपवाद भी है, क्योंकि भट्ट अकलंकदेव ने कहा है-"अतः पुंसोऽपि स्त्रीवेदोदयः। कदाचिद्योषितोऽपि पुंवेदोदयोऽप्याभ्यन्तरविशेषात्।" (त.रा.वा.८/९/४/पृ.५७४ )। अर्थात् आभ्यन्तर विशेषता के कारण कभी पुरुष में भी स्त्रीवेद का उदय हो जाता है और कभी स्त्री में भी पुरुषवेद उदय में आ जाता है।
उपर्युक्त सामान्य नियम का यह अपवाद सर्वज्ञोपदिष्ट ही है। तथा "पुरुष में भी स्त्रीवेद का उदय और स्त्री में भी पुरुषवेद का उदय" इस शब्दावली से द्योतित होता है कि जीव, द्रव्य से पुरुष या स्त्री तो पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में बाँधे गये पुरुषवेद-नामकर्म या स्त्रीवेद-नामकर्म के उदय से ही होता है, किन्तु उसमें भावस्त्रीवेद या भावपुरुषवेद का उदय अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से पहले कभी बाँधे गये नोकषायरूप
१५३. "कपट, धोखे आदि के परिणामों से स्त्रीवेद का तीव्र अनुभाग लिए बन्ध होता है। जिस
मनुष्य के मरते समय कपट-आदि रूप परिणाम होते हैं, वे मरकर मनुष्यनी व देवी होते
हैं।" पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व / भाग १/ पृ. ४३४। १५४. सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि।
दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः॥ १/३५ ॥ रत्नकरण्डश्रावकाचार।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org