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अ०११/प्र०८
षट्खण्डागम / ७०१ वेदाणं बंधाभावादो। कुदो, जम्मि जादीए उप्पज्जदि तज्जादिपडिबद्धवेदस्सेव भुंजमाणाउअस्स चरिमअंतोमुत्तम्मि णिरंतरबंधसंभवादो। तेण इत्थिपुरिसवेदाणं सगसगट्ठिदिसंतकम्मादो संखेज्जभागब्भहियं कसायट्ठिदिं बंधाविय बंधावलियादिक्कंतं बज्झमाणित्थिपुरिसवेदेसु संकामिदेसु संखेज्ज-भागवड्डीए एगसमओ चेव लब्भदि।" (ज.ध. / क.पा./ भा.४ / ट्ठिदिविहत्ती ३ / गा.२२ / अनुच्छेद २८९, पृ. १७०)।
अनुवाद-"स्त्रीवेद और पुरुषवेद की संख्यातभागवृद्धि का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। दो समय काल प्राप्त नहीं होता, क्योंकि जो द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रियों में और त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, उनके अपनी आयु के अन्तिम समय में नपंसकवेद को छोडकर अन्य वेद का बन्ध नहीं होता. क्योंकि जो जीव जिस जाति में उत्पन्न होता है, उसके उस जाति से सम्बन्ध रखनेवाले वेद का ही भुज्यमान आयु के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में निरन्तर बन्ध सम्भव है। इसलिए स्त्रीवेद और पुरुषवेद की अपने-अपने स्थितिसत्कर्म से संख्यातवें भाग अधिक कषाय की स्थिति का बन्ध कराके बन्धावलि के बाद बँधनेवाले स्त्रीवेद और पुरुषवेद में उसके संक्रान्त होने पर संख्यातभागवृद्धि का एक समय ही प्राप्त होता है।"
इसका विशेषार्थ बतलाते हुए पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री एवं पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य लिखते हैं-"--- जो द्वीन्द्रिय से तेइन्द्रिय में और तेइन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय में उत्पन्न होते हैं, उनके अपनी आयु के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में नपुंसकवेद के अतिरिक्त अन्य वेद का बन्ध नहीं होता, क्योंकि तेइन्द्रिय या चतुरिन्द्रिय जीव, जिनमें वे उत्पन्न होंगे, नियम से नपुंसकवेदी होते हैं और सामान्य नियम यह है कि जो जीव जिस जाति में उत्पन्न होता है, उसके उस जाति से सम्बन्ध रखनेवाले वेद का ही भुज्यमान आयु के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में निरन्तर बन्ध सम्भव है।" (पृ.१७१)।
इसी प्रकार द्विदिविहत्ती की २२वीं गाथा की जयधवला टीका के ५४ वें अनुच्छेद का विशेषार्थ प्रकाशित करते हुए उक्त विद्वानों ने लिखा है-"किन्तु तिर्यंच पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक के स्त्रीवेद की और योनिमती तिर्यंच के पुरुषवेद और नपुंसकवेद की भुजगारस्थिति के सत्रह समय ही प्राप्त होते हैं, जिसका उल्लेख मूल में किया ही है। बात यह है कि जो जिस वेद के साथ उत्पन्न होता है, उसके पूर्वपर्याय के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में वह वेद ही बंधता है, अतः योनिमती तिर्यंच में उत्पन्न होनेवाले जीव के पूर्वपर्याय के अन्त में पुरुष व नपुंसकवेद का बन्ध नहीं होने से सोलह कषायों का उक्त वेदों में संक्रमण भी नहीं होता, अतः उक्त वेदों के भुजगार के अठारह समय घटित नहीं होते। इसी प्रकार पर्याप्त तिर्यंच के स्त्रीवेद के भुजगार का काल अठारह समय न कहकर सत्रह समय कहा है। सो यह सत्रह समय स्वस्थान की अपेक्षा जानना चाहिए।" (ज.ध./क.पा./भा.४/ट्ठिदिविहत्ति ३/गा.२२/ अनुच्छेद ५४/पृ.३०)।
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