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________________ ७०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र०८ भाववेद के द्वारा द्रव्यवेद की उत्पत्ति मानने का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया है। इसके प्रमाण पूर्व में प्रस्तुत किये जा चुके हैं। अतः भावेन्द्रियों और द्रव्येन्द्रियों के दृष्टान्त द्वारा भाववेद को द्रव्यवेद की उत्पत्ति का हेतु मानना आगमसम्मत नहीं है। और भावेन्द्रियों को द्रव्येन्द्रियों की उत्पत्ति का हेतु भी उपचार से कहा गया है। वस्तुतः भावेन्द्रियों और द्रव्येन्द्रियों की उत्पत्ति की व्यवस्था जातिनामकर्म के अधीन है। जीव के द्वारा बाँधा गया जो जातिकर्म उदय में आता है, उसी के अनुसार स्पर्शनादि-इन्द्रियावरण का क्षयोपशम होता है तथा एकेन्द्रियादिरूप अंगोपांगनामकर्म का उदय होता है, जिससे द्रव्येन्द्रिय की रचना होती है। धवलाकार ने जातिनामकर्म की वशवर्तिता (अधीनता) में ही विभिन्न कर्मों के क्षयोपशम और उदय से द्रव्येन्द्रियों की उत्पत्ति बतलायी "वीर्यान्तराय-स्पर्शनरसनेन्द्रियावरण-क्षयोपशमे सति शेषेन्द्रिय-सर्वघातिस्पर्धकोदये चाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भे द्वीन्द्रिय-जातिकर्मोदयवशवर्तितायां च सत्यां स्पर्शनरसनेन्द्रिये आविर्भवतः।" (ष.खं./ पु.१/१,१,३३/ पृ. २४४)। अनुवाद-"वीर्यान्तराय और स्पर्शन-रसनेन्द्रियावरण कर्मों का क्षयोपशम होने पर, शेष-इन्द्रियावरणकर्मों के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदय होने पर तथा अंगोपांगनामकर्म के उदय का आलम्बन होने पर द्वीन्द्रियजातिनामकर्म के उदय की वशवर्तिता में स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। यतः भावेन्द्रियों का उदय विग्रहगति में हो जाता है और द्रव्येन्द्रियनिष्पादक अंगोपांगनामकर्म का उदय तदनन्तर मिश्रशरीरकाल में होता है, इस पूर्वापरता के ही कारण भावेन्द्रियों को कारण और द्रव्येन्द्रियों को कार्य उपचार से कहा गया है। पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने भी लिखा है "वास्तव में द्रव्येन्द्रिय का नियमन भावेन्द्रिय नहीं करती, किन्तु जातिनामकर्म करता है। जातिनामकर्म ही तत्तत् इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम में भी कारण है और वही अपने योग्य द्रव्येन्द्रियों को प्राप्त कराता है। इससे यह तो स्पष्ट हो गया कि भावेन्द्रियों से द्रव्येन्द्रियों की रचना नहीं होती।" (सिद्धान्तसमीक्षा / भाग ३ / पृ.२६४)। इस प्रकार भावेन्द्रियों से द्रव्येन्द्रियों की रचना के दृष्टान्त द्वारा भाववेद को द्रव्यवेद की रचना का हेतु मानना युक्तिसंगत एवं आगमसम्मत नहीं है। ४. वीरसेन स्वामी ने जयधवला में कहा है-"इत्थिपुरिसवेदाणं संखेज्जभागवड्डिकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। वे समया ण लब्भंति। कुदो? बेइंदियाणं तीइंदिएसु, तेइंदियाणं चउरिदिएसु उप्पज्जमाणाणामप्पणो आउअचरिमसमए णqसयवेदं मोत्तूण अण्ण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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