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अ०११/प्र०८
षट्खण्डागम / ६९९ द्रव्यवेद प्रायः समान होते हैं, किन्तु कहीं-कहीं विषम भी होते हैं। प्रमाण के लिए वह गाथा यहाँ उद्धृत की जा रही है
पुरुसिच्छिसंढवेदोदएण पुरिसित्थिसंढवो भावे।
णामोदएण दव्वे पाएण समा कहिं विसमा॥ २७१॥ इस प्रकार टीकाकार का प्रतिपादन गाथाकर के आशय के सर्वथा विपरीत है। अतः वह मान्य नहीं हो सकता।
पूज्यपाद स्वामी ने भी "द्रव्यलिङ्ग योनिमेहनादिनामकर्मोदय-निवर्तितम्। नोकषायोदयापादितवृत्ति भावलिङ्गम्" (स.सि./२/५२/३६३ / पृ.१४७) इन वाक्यों में यही बात कही है। उन्होंने द्रव्यवेद की उत्पत्ति केवल नामकर्म के उदय से बतलायी है, भाववेद और नामकर्म दोनों के उदय से नहीं। और भट्ट अकलंकदेव ने तो स्पष्ट शब्दों में भावस्त्रीवेद के उदय से योनि-स्तन आदिरूप द्रव्यस्त्रीवेद की उत्पत्ति का निषेध किया है। यथा-"ननु लोके प्रतीतं योनि-पृथुस्तनादि स्त्रीवेदलिङ्गम्। न, तस्य नामकर्मोदयनिमित्तत्वात्।" (त. रा. वा.८/९/४/ पृ. ५७४)।
अनुवाद-"(यहाँ प्रश्न किया गया है कि) स्त्रीवेद के उदय से तो योनि, पृथुस्तन आदि लोकप्रसिद्ध लिंग (स्त्रीशरीरसूचक अंगों) की उत्पत्ति होती है? (इसके उत्तर में अकलंकदेव कहते हैं) नहीं, उसकी उत्पत्ति तो नामकर्म (स्त्र्यंगोपांगनामकर्म) के उदय से होती है।"
अकलंकदेव ने केवल कोमलता, लज्जालुता, नेत्रविभ्रम, पुरुष के साथ रमणेच्छा आदि स्त्रैणभावों के उदय को स्त्रीवेद नामक नोकषायकर्म का कार्य बतलाया है, योनि, स्तन आदि स्त्रीशरीर के लोकप्रसिद्ध चिह्नों की उत्पत्ति को नहीं। यथा
"यस्योदयात् स्त्रैणान् भावान् मार्दवास्फुटत्व-क्लैब्य-मदनावेश-नेत्रविभ्रमास्फालनसुख-पुंस्कामनादीन् प्रतिपद्यते स स्त्रीवेदः।" (त. रा. वा. ८/९/४ / पृ.५७४)।
इन वचनों से सिद्ध है कि भाववेद, द्रव्यवेद के उदय या रचना का हेतु नहीं
३. पूज्यपाद स्वामी ने भावेन्द्रियों को द्रव्येन्द्रियों की उत्पत्ति का हेतु कहा है,५२ किन्तु भाववेद को द्रव्यवेद की उत्पत्ति का हेतु नहीं कहा। भट्ट अकलंकदेव ने तो,
१५२."लब्ध्यपयोगी भावेन्द्रियम" (त.स.२/१८)।लम्भनं लब्धिः । का पुनरसौ? ज्ञानावरणक्षयोप
शमविशेषः। यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिर्वृत्तिं प्रति व्याप्रियते तन्निमित्त आत्मनः परिणाम उपयोगः। (स.सि./२/१८/२९६ / पृ.१२७)।
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