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६९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०११/प्र०८
इसके बाद प्रोफेसर सा० ने लिखा है-"वेदरूप भाव के अनुसार ही पुरुषस्त्रीरूप जातियाँ उत्पन्न होती हैं और उनकी जो द्रव्यरचना प्रतिनियत है, वही उनके उत्पन्न होती है। अत एव वेदवैषम्य कर्म-सिद्धान्त-व्यवस्था से सिद्ध नहीं होता, चाहे उसके उल्लेख दिगम्बर-ग्रन्थों में हों और चाहे श्वेताम्बरग्रन्थों में। फलतः यदि तीनों भाववेदों से क्षपकश्रेणी चढ़ना इष्ट है, तो तीनों द्रव्यवेदों से मुक्ति के प्रसंग से बचा नहीं जा सकता।" (सिद्धान्तसमीक्षा / भाग ३/ पृ.१९१)।
___'सर्वार्थसिद्धि' और 'धवला' में कहा गया है कि भावेन्द्रिय के निमित्त से द्रव्येन्द्रिय की उत्पत्ति होती है। इसका उदाहरण देते हुए प्रोफेसर सा० लिखते हैं कि इसी प्रकार भाववेद अपने समान द्रव्यवेद की रचना करता है, (सिद्धान्तसमीक्षा / भाग ३/ पृ. २९८-२९९)।
प्रोफेसर सा० के वेदवैषम्य-विरोधी मत का निरसन १. प्रोफेसर सा० ने यह स्वीकार किया है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन शास्त्रों में वेदवैषम्य के उल्लेख हैं, फिर भी वे उसे सत्य नहीं मानते, क्योंकि उनके अनुसार वह कर्म-सिद्धान्त-व्यवस्था से सिद्ध नहीं होता। आचार्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि, आचार्य कुन्दकुन्द, पूज्यपाद स्वामी, भट्ट अकलंकदेव, वीरसेन स्वामी और नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती आदि दिगम्बराचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जितने भी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, सर्वज्ञ के उपदेश के आधार पर किया है। अतः उनके द्वारा प्रतिपादित वेदवैषम्य भी सर्वज्ञोपदिष्ट ही है। यदि हम छद्मस्थों की तर्कबुद्धि में वह तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता, तो यह सिद्ध नहीं होता कि वह असत्य है। यदि हमारी छद्मस्थबुद्धि ही प्रमाण हो, तो, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, मोक्ष, कर्मसिद्धान्त आदि अनेक तत्त्व अप्रामाणिक सिद्ध होंगे, क्योंकि इनकी सत्यता भी हमारी तर्कबुद्धि से सिद्ध नहीं होती। अतः यदि वेदवैषम्य सर्वज्ञोपदिष्ट है, तो उसका कर्मसिद्धान्त-व्यवस्था से भी सिद्ध होना अनिवार्य है। उसकी सिद्धि आगे द्रष्टव्य है।
२. गोम्मटसार-जीवकाण्ड की २७१ वीं गाथा की श्रीकेशववर्णीकृत टीका ग्रन्थकार के आशय के अनुरूप नहीं है। गाथा में यह कहीं नहीं कहा गया है कि भाववेद, निर्माणनामकर्म और अंगोपांगनामकर्म, इन तीन के द्वारा द्रव्यवेद की रचना होती है। उसमें तो यह कहा गया है कि पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद नामक कर्मप्रकृतियों के उदय से भावपुरुषवेद, भावस्त्रीवेद और भावनपुंसकवेद रूप परिणाम की उत्पत्ति होती है तथा अंगोपांगनामकर्म के उदय से द्रव्यवेद की रचना होती है। भाववेद और
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