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________________ अ०११/प्र०८ षट्खण्डागम / ६९७ देहाङ्कितो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यनपुंसकं जीवो भवति। एते द्रव्यभाववेदाः प्रायेण प्रचुरवृत्त्या देवनारकेषु भोगभूमि-सर्वतिर्यग्मनुष्येषु च समाः द्रव्यभावाभ्यां समवेदोदयाङ्किता भवन्ति। क्वचित् कर्मभूमिमनुष्यतिर्यग्गतिद्वये विषमाः विसदृशा अपि भवन्ति। तद्यथा-द्रव्यतः पुरुषे भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुंसकम्। द्रव्यस्त्रियां भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुंसकम्। द्रव्यनपुंसके भावपुरुषः भावस्त्री भावनपुंसकमिति विषमत्वं द्रव्यभावयोरनियमः कथितः। कुतः? द्रव्यपुरुषस्यक्षपकश्रेण्यारूढानिवृत्ति-करणसवेदभागपर्यन्तं वेदत्रयस्य परमागमे 'सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्ता य ते दु सिझंति' (कुन्दकुन्द-सिद्धभक्ति ६) इति प्रतिपादितत्वेन सम्भवात्।" (जी. त. प्र./ गो.जी./ गा.२७१)। प्रो० हीरालाल जी इसका सन्दर्भ देते हुए लिखते हैं-"(उक्तटीका में) विधिवत् यह बतलाया गया है कि जब पुंवेद के उदय के साथ निर्माण और अगोपांगनामकर्म का उदय होता है, तभी शिश्नादि-लिंगांकित पुरुषशरीर उत्पन्न होता है। जब स्त्रीवेद के उदय के साथ उन्हीं नामकर्मों का उदय होता है, तब योनि आदि लिंगसहित स्त्रीशरीर उत्पन्न होता है और जब नपुंसकवेदोदय के साथ उन्हीं कर्मों का उदय होता है, तब उभयलिंग-व्यतिरिक्त नपंसकशरीर उत्पन्न होता है। यही कर्म-सिद्धान्त की नियतव्यवस्था बतलाकर टीकाकार ने क्वचित् विषमत्व की बात यह कहकर समझायी है कि चूंकि परमागम में तीनों वेदों से क्षपकश्रेणी का विधान किया गया है, इसलिए यह भी संभव मान लेना चाहिए कि कर्मभूमि के जीवों में भाव और द्रव्य वेदों में वैषम्य भी होता है। किन्तु टीकाकार ने वेदसाम्य को जैसी व्यवस्था से समझाकर बतलाया है, वैसी वे यहाँ नहीं बता सके कि कर्मोदय की कौनसी व्यवस्था से यह वेदवैषम्य फलित होता है। वेदवैषम्य इस कारण भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि किसी भी द्रव्यशरीर के साथ कोई भी भाववेद उदय में आ सकता, तो जीवन में कषायों के समान वेदपरिवर्तन भी माना गया होता। --- आगम में वेदपरिवर्तन नहीं मानने का कारण यही है कि स्त्रीवेद स्त्रीशरीर में ही उदय में आ सकता है और चॅकि शरीररचना जीवन भर बदलती नहीं है, इसीलिए भाववेद भी एक पर्याय में कभी बदल नहीं सकता। यही बात पुरुष व नपुंसक-वेदोदय की है। (सिद्धान्तसमीक्षा / भाग३/पृ.१८८-१८९)। प्रोफेसर सा० आगे लिखते हैं-"शरीर की स्त्री-पुरुषरूप रचना के लिए क्रमशः स्त्री व पुरुषवेद-विशिष्ट जीव निमित्तरूप से कारणीभूत होता ही है। अत एव कोई भी द्रव्यवेद अपने भाववेद के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता एवं भव के प्रथम समय से जीव के जो भाववेद होगा, वह अपने ही अनुरूप द्रव्यवेद की रचना करके व्यक्तरूप से उदय में आवेगा।" (सिद्धान्त-समीक्षा / भाग ३/पृ. १९०-१९१)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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