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________________ अष्टम प्रकरण कर्मसिद्धान्त-व्यवस्था से वेदवैषम्य की सिद्धि प्रो० हीरालाल जी का वेदवैषम्य-विरोधी मत षट्खण्डागम में भावस्त्रीवेद के उदय से युक्त पुरुषशरीरधारी मनुष्य को भी मनुष्यिनी शब्द से अभिहित किया गया है और उसे चौदह गुणस्थानों की प्राप्ति संभव बतलायी गयी है। इसलिए षट्खण्डागम में मनुष्यनी के लिए संयतगुणस्थान के विधान से यह सिद्ध नहीं होता कि उसमें द्रव्यस्त्री की मुक्ति मानी गयी है। किन्त प्रो० हीरालाल जी जैन को भी यापनीय-आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन के समान वेदवैषम्य स्वीकार नहीं है, इसलिए उन्होंने षट्खण्डागम में जिस मनुष्यिनी को संयतगुणस्थान की प्राप्ति बतलायी गयी है, उसे भावमनुष्यिनी न मानकर द्रव्यमनुष्यिनी माना है और यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि दिगम्बरजैन-परम्परा में भी द्रव्यस्त्रीमुक्ति मानी गयी है। (सिद्धान्तसमीक्षा / भाग ३ / पृ.१९१)। गोम्मटसार-जीवकाण्ड की २७१ वी गाथा की टीका में श्री केशव वर्णी ने लिखा है कि पुंवेदादि-नोकषायरूप वेदकर्म, निर्माणनामकर्म तथा अंगोपांगनामकर्म, इन तीन के उदय से पुरुषादि के शरीर की रचना होती है। इस अभिप्राय को व्यक्त करनेवाली उनकी जीवतत्त्वप्रदापिका नामक कर्णाटवृत्ति का श्री नेमिचन्द्र (१६वीं शताब्दी ई०) द्वारा किया गया जीवतत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृतरूपान्तर५१ नीचे उद्धृत किया जा रहा है "पुंवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयवशेन श्मश्रुकूर्चशिश्नादिलिङ्गाङ्कितशरीरविशिष्टो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यपुरुषो भवति। स्त्रीवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयेन निर्लोममुखस्तनयोन्यादिलिङ्गलक्षितशरीरयुक्तो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यस्त्री भवति। नपुंसकवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयेन उभयलिङ्गव्यतिरिक्त १५१.क- गोम्मटसार / जीवकाण्ड / भाग १ मंगलगाथा १/ उत्थानिका : संस्कृत-जीवतत्त्व प्रदीपिका/पृ.९। ख-गो.सा./ जी.का./भा.१ / प्रस्ता./पृ.३६ । ग-गो.सा./क.का./ भा.२ / गा. ९७२/ संस्कृतटीकार-प्रशस्ति/पा.टि.१/ पृ. १३८१-१३९३) घ- तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा/खण्ड २/पृ. ४४० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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