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अ०११/प्र०७
षट्खण्डागम / ६९५ "जीवट्ठाण द्रव्यवेदों का न प्रतिपादन करता है और न ही कौन द्रव्यवेद में कितने-कितने गुणस्थान हैं, किन-किन के कौन-कौन सा द्रव्यवेद है, इन बातों का वर्णन करता है। बिना इसके प्रत्येक मार्गणा और उसके भेदों के साथ द्रव्यवेद का सम्बन्ध जोड़ लेना ठीक नहीं है। शरीर जीवों के होते हैं, द्रव्यवेद होते हैं, इस कल्पना पर से मनुषिणी के द्रव्यवेद की कल्पना की जा रही है। वह भी द्रव्यस्त्रीवेद की ही, तो जिन मनुषिणियों के चौदह गुणस्थानों में संख्या, क्षेत्र आदि आठ अनुयोग कहे गये हैं, उनके दूसरे लोग द्रव्यस्त्रीवेद की कल्पना करते हैं। जैसी तेरानवेवें सूत्र में द्रव्यवेद की कल्पना द्रव्यपक्षी कर रहे हैं, वैसी ही स्त्रीमुक्ति के चाहनेवाले मनुषिणीसम्बन्धी अन्य सूत्रों में भी द्रव्यस्त्रीवेद की कल्पना करते हैं। संजद-शब्द के इस ताम्रप्रति में से निकाल देने पर भी नं० ९३वें का सूत्र द्रव्यस्त्री का प्रतिपादक तो होगा नहीं, जब कि वह अन्य ऐसी ही प्रतियों में तदवस्थ है। अतः बेहतर है कि हमारी गलती पर से प्रतिपक्षी लाभ न उठा सकें। यदि कैसे भी दुराग्रहवश संजद-शब्द को निकलवाकर द्रव्यस्त्री की घोषणा की जायगी, तो भी नं. ९३ वें सूत्रान्तर्गत मनुषिणी द्रव्यस्त्री सिद्ध नहीं होगी, प्रत्युत प्रतिपक्षियों को पूरा बल मिल जायगा। अतः बेहतर है कि संजदशब्द के निकलवाने के दुराग्रह को त्यागकर मातृप्रतियों में जैसा पाठ है, वैसा ही भावस्त्रियों की अपेक्षा स्वीकार कर लिया जाय।" (षट्खण्डागम-रहस्योद्घाटन/नम्रनिवेदन/ पृ.२-४)।
विद्वानों के इन उद्गारों पर दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जाता है कि षटखण्डागम की प्रकाशित प्रति में संजद पद किसी मजबूरी से नहीं रखा गया है, अपितु इसलिये रखा गया है कि ताड़पत्रीय मूलप्रति में वह विद्यमान है और उसके होने पर ही षट्खण्डागम में प्रतिपादित सिद्धान्तों की दिगम्बरजैनमत से संगति बैठती है, न होने पर सारा प्रतिपादन विंसगतियों से आक्रान्त हो जाता है।
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