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६९४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र०७
होता और अपर्याप्तक स्त्रीवेदी को औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं क्षायिक तीनों सम्यग्दर्शन नहीं होते । (स.सि./ १/७/२६/पृ.१७, गो. जी. / गा. १२८) । इसके अतिरिक्त जो असंयतसम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शनसहित उत्तरभव में जाता है, उसके उत्तरभव के प्रथम समय (विग्रहगति) में भावस्त्रीवेद का उदय नहीं होता, अपितु भावपुरुषवेद का उदय होता है, केवल मिथ्यादर्शन एवं सासादनसम्यग्दर्शन के साथ उत्तरभव में जानेवाले जीव में उत्तरभव के प्रथम समय में भावस्त्रीवेद का उदय संभव है। इस कारण भावमनुष्यिनी की अपर्याप्त अवस्था में आदि के दो गुणस्थानों को छोड़कर शेष गुणस्थान नहीं होते । इसीलिए षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणागत ९२ वें सूत्र में अपर्याप्त मनुष्यिनी में मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि इन दो को छोड़कर शेष बारह गुणस्थानों का कथन नहीं किया गया है। इस प्रकार अपर्याप्त मनुष्यिनी में शेष बारह गुणस्थानों का कथन न किये जाने का कारण यह नहीं है कि अपर्याप्त अवस्था में भाववेद या भावलिंग का उदय नहीं होता, अपितु ऊपर बतलाया हुआ कारण है ।
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'संजद' पद होने के पक्ष में सोनी जी का तर्क
षट्खण्डागम के अन्तस्तल में पहुँचे हुए पुराने विद्वान् पं० पन्नालाल जी सोनी ने ९३वें सूत्र में 'संजद' पद होने के समर्थन में एक २२४ पृष्ठों का षट्खण्डागमरहस्योद्घाटन नामक ग्रन्थ लिखा है । उसमें उन्होंने युक्तिप्रमाणपूर्वक यह स्पष्ट किया है कि ९३वें सूत्र में 'संजद' पद रखा जाना क्यों आवश्यक है? पण्डित जी के मन्तव्य को समझने के लिये इस ग्रन्थ के 'नम्र निवेदन' से उनके कुछ वचनांश उद्धृत कर रहा हूँ। वे इस प्रकार हैं
" किसी भी विषय को जानने के लिये उस ग्रन्थ की कथनशैली, विषयविभाग आदि के जानने की भी पूर्ण आवश्यकता है। इन बातों को देखते हुए नं० ९३ वें में संजद - शब्द का होना आवश्यक प्रतीत हो रहा है । षट्खंडागम के आद्य मुद्रित सात खंडों में भावमार्गणाओं का कथन है, अतः उन भावमार्गणाओं का अस्तित्व, उनमें द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्श आदि आठ अनुयोगद्वार कहे गये हैं । उत्पत्ति इन मार्गणाओं की कैसे होती है, उनमें कौन-कौन से और कितने-कितने गुणस्थान हैं, इन सबको देखते हुए मैं इस आशय पर पहुँचा हूँ कि यह सब कथन भावों से सम्बन्ध रखता है, द्रव्यवेदों का अस्तित्व, उत्पत्तिकारण, उनमें संख्या, क्षेत्र, स्पर्श, गुणस्थान आदि नहीं कहे गये हैं। बिना कहे ही ये सब द्रव्यवेद में कहे गये हैं, ऐसी धारणा बना लेना विपरीत विषयका प्रतिपादन है ।
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