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अ०११/प्र०७
षट्खण्डागम / ६९३ और अयुक्त ठहरेगा। अत एव अकलङ्कदेव उक्त सूत्र में 'संजद' पदका होना मानते हैं और उसका सयुक्तिक समर्थन करते हैं। वीरसेन स्वामी भी अकलंकदेव के द्वारा प्रदर्शित इसी मार्ग पर चले हैं। अत: यह निर्विवाद है कि उक्त सूत्र में 'संजद' पद है। और इसलिये ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण सूत्रों में भी इस पद को रखना चाहिये, तथा भ्रान्तिनिवारण एवं स्पष्टीकरण के लिये उक्त सूत्र ९३ के फुटनोट में तत्त्वार्थराजवार्त्तिक का उपर्युक्त उद्धरण दे देना चाहिये।
"हमारा उन विद्वानों से, जो उक्त सूत्रमें 'संजद' पदकी अस्थिति बतलाते हैं, नम्र अनुरोध है कि राजवार्त्तिक के इस दिनकर-प्रकाश की तरह स्फुट प्रमाणोल्लेख के प्रकाश में उस पद को देखें। यदि उन्होंने ऐसा किया, तो मुझे आशा है कि वे भावलिङ्ग की अपेक्षा उक्त सूत्र में 'संजद' पद का होना मान लेंगे। श्री १०८ आचार्य शान्तिसागर जी महाराज से भी प्रार्थना है कि वे ताम्रपत्र में उक्त सूत्र में 'संजद' पद अवश्य रखें, उसे हटायें नहीं।"१५० मान्य कोठिया जी के मत में किंचित् संशोधन आवश्यक
___ माननीय कोठिया जी ने तत्त्वार्थराजवार्तिक से भट्ट अकलंकदेव के वचन उद्धृत कर भली-भाँति सिद्ध कर दिया है कि षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणागत ९३ वें सूत्र में 'संजद' पद का होना अनिवार्य है तथा उसमें प्रयुक्त 'मणुसिणी' शब्द भावमनुष्यिनी
और द्रव्यमनुष्यिनी दोनों का वाचक है। प्रसंगवश यहाँ एक बात की ओर ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है। कोठिया जी का यह मत आगम के अनुकूल नहीं है कि "अपर्याप्त अवस्था में स्त्रियों के आदि के दो गुणस्थान और पुरुषों के पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान ही संभव हैं और इसलिए इन गुणस्थानों को छोड़कर अपर्याप्त अवस्था में भाववेद या भावलिंग नहीं होता, जिससे पर्याप्त मनुष्यिनियों की तरह अपर्याप्त मनुष्यिनियों के १४ भी गुणस्थान कहे जाते।"
वस्तुतः प्रत्येक जीव में भाववेद (वेदनोकषाय) का उदय उत्तरभव के प्रथम समय (विग्रहगति) में ही हो जाता है, जिससे विग्रहगति में ही जीव की मनुष्य, मनुष्यिनी आदि संज्ञाएँ निर्धारित हो जाती हैं। (देखिए , प्रकरण ४ / शीर्षक १ तथा १०.४ एवं पा.टि.३२)। बात सिर्फ यह है कि कोई भी जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तथा संयतासंयत से लेकर आगे के शेष गुणस्थानों के साथ पूर्वभव से उत्तरभव में नहीं जाता। इसलिए किसी भी जीव की अपर्याप्त अवस्था में ये गुणस्थान नहीं होते। तथा अपर्याप्त अवस्था में किसी भी मिथ्यादृष्टि जीव को उपशम-सम्यग्दर्शन नहीं
१५०. 'अनेकान्त' (मासिक)/ वर्ष ८/ किरण २/ फरवरी १९४६/ पृ.८३-८५ ।
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