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________________ ६९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र०७ शास्त्री बनारस और पं० पन्नालाल जी सोनी ब्यावर आदि विद्वान् हैं। ये सभी विद्वान् जैनसमाज के प्रतिनिधि विद्वान् हैं। अत एव उक्त पद के निर्णयार्थ. अभी हाल में बम्बई-पंचायत की ओर से इन विद्वानों को निमंत्रित किया गया था। परन्तु अभी तक कोई एक निर्णयात्मक नतीजा सामने नहीं आया। दोनों ही पक्षों के विद्वान् युक्तिबल, ग्रन्थसन्दर्भ और वीरसेन स्वामी की टीका को ही अपने-अपने पक्ष के समर्थनार्थ प्रस्तुत करते हैं। पर जहाँ तक मुझे मालूम है षटखण्डागम के इस प्रकरण-सम्बन्धी सूत्रों के भाव को बतलानेवाला वीरसेन स्वामी से पूर्ववर्ती कोई शास्त्रीय-प्रमाणोल्लेख किसी की ओर से भी प्रस्तुत नहीं किया गया है। यदि वीरसेन स्वामी से पहले षट्खण्डागम के इस प्रकरण-सम्बन्धी सूत्रों का स्पष्ट अर्थ बतलानेवाला कोई शास्त्रीय प्रमाणोल्लेख मिल जाता है तो उक्त सूत्र में 'संजद' पद की स्थिति या अस्थिति का पता चल जावेगा और फिर विद्वानों के सामने एक निर्णय आ जायगा। ___ "अकलङ्कदेव का तत्त्वार्थराजवार्तिक वस्तुतः एक महान् सद्रत्नाकर है। जैनदर्शन और जैनागम विषय का बहुविध और प्रामाणिक अभ्यास करने के लिये केवल उसी का अध्ययन पर्याप्त है। अभी मैं एक विशेष प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिये उसे देख रहा था। देखते हुए मुझे वहाँ 'संजद' पद के सम्बन्ध में बहुत ही स्पष्ट और महत्त्वपूर्ण खुलासा मिला है। अकलङ्कदेव ने षट्खण्डागम के इस प्रकरण-सम्बन्धी समग्र सूत्रों का वहाँ प्रायः अविकल अनुवाद ही दिया है। इसे देख लेने पर किसी भी पाठक को षट्खण्डागम के इस प्रकरण के सूत्रों के अर्थ में जरा भी सन्देह नहीं रह सकता। यह सर्वविदित है कि अकलङ्कदेव वीरसेन स्वामी से पूर्ववर्ती हैं और उन्होंने (वीरसेन स्वामी ने) अपनी धवला तथा जयधवला दोनों टीकाओं में अकलंकदेव के राजवार्तिक के प्रमाणोल्लेखों से अपने वर्णित विषयों को कई जगह प्रमाणित किया है। अतः राजवार्त्तिक में षट्खण्डागम के इस प्रकरण-संबंधी सूत्रों का जो खुलासा किया गया है, वह सर्व के द्वारा मान्य होगा ही। वह खुलासा निम्न प्रकार है "मनुष्यगतौ मनुष्येषु पर्याप्तकेषु चतुर्दशापि गुणस्थानानि भवन्ति। अपर्याप्तकेषु त्रीणि गुणस्थानानि मिथ्यादृष्टि-सासादनसम्यग्दृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयाख्यानि। मानुषीषु पर्याप्तिकासु चतुर्दशापि गुणस्थानानि सन्ति भावलिङ्गापेक्षया, न द्रव्यलिङ्गापेक्षया। द्रव्यलिङ्गापेक्षया तु पञ्चाद्यानि। अपर्याप्तिकासु द्वे आये, सम्यक्त्वेन सह स्त्रीजननाभावात्।" (तत्त्वार्थराजवार्त्तिक । ९/७ / ११ पृ.६०५)। "पाठकगण इसे षट्खण्डागम के निम्न सूत्रों के साथ पढ़ें "मणुस्सा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पजत्ता सिया अपजत्ता॥ ८९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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