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अ०११ / प्र० ७
" सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजद-संजद-द्वाणे णियमा पज्जत्ता ॥ ९० ॥
""
" एवं मणुस्स - पज्जत्ता ॥ ९१ ॥
षट्खण्डागम / ६९१
"मणुसिणीसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि- ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ ॥ ९२॥
"सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजद-संजदट्ठाणे णियमा पज्जत्ति-याओ
॥ ९३॥,१४८
" षट्खण्डागम और राजवार्त्तिक के इन दोनों उद्धरणों पर से पाठक यह सहज में समझ जावेंगे कि राजवार्त्तिक में षट्खण्डागम का ही भावानुवाद दिया हुआ है और सूत्रों में जहाँ कुछ भ्रान्ति हो सकती थी, उसे दूर करते हुए सूत्रों के हार्द का सुस्पष्ट शब्दों द्वारा खुलासा कर दिया गया है। राजवार्त्तिक के उपर्युक्त उल्लेख में यह स्पष्टतया बतला दिया गया है कि पर्याप्त मनुष्यणियों के १४ गुणस्थान होते हैं, किन्तु वे भावलिंग की अपेक्षा से हैं, द्रव्यलिङ्ग की अपेक्षा से तो उनके आदि के पाँच ही गुणस्थान होते हैं। इससे प्रकट है कि वीरसेन स्वामी ने जो भावस्त्री की अपेक्षा १४ गुणस्थान और द्रव्यस्त्री की अपेक्षा ५ गुणस्थान षट्खण्डागम के ९३वें सूत्र की टीका में व्याख्यात किये हैं, और जिन्हें ऊपर अकलंकदेव ने भी बतलाया है, वह बहुत प्राचीन मान्यता है और वह सूत्रकार के लिये भी इष्ट है। अत एव सूत्र ९२ वें में उन्होंने अपर्याप्त स्त्रियों में सिर्फ दो ही गुणस्थानों का प्रतिपादन किया है और जिसका उपपादन 'अपर्याप्तिकासु द्वे आद्ये, सम्यक्त्वेन सह स्त्रीजनना - भावात् ' कहकर अकलङ्कदेव ने किया है। अकलङ्कदेव के इस स्फुट प्रकाश में सूत्र ८९ और ९२ से महत्त्वपूर्ण तीन निष्कर्ष और निकलते हुए हम देखते हैं। एक तो यह कि सम्यग्दृष्टि स्त्रियों में पैदा नहीं होता। अतएव अपर्याप्त अवस्था में स्त्रियों के प्रथम के दो ही गुणस्थान कहे गये हैं, जब कि पुरुषों में इन दो गुणस्थानों के अलावा चौथा असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान भी बतलाया गया है और इस तरह उनके पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान कहे गये हैं । इसी प्राचीन मान्यता का अनुसरण और समर्थन स्वामी समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार (श्लोक ३५) में किया है। इससे यह प्रकट हो जाता है कि यह मान्यता कुन्दकुन्द या स्वामी समन्तभद्र आदि द्वारा पीछे से नहीं गढ़ी गई है, अपितु उक्त सूत्रकाल के पूर्व से ही चली आ रही
है।
" दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि अपर्याप्त अवस्था में स्त्रियों के आदि के दो गुणस्थान और पुरुषों के पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन गुणस्थान ही संभव
१४८. षट्खण्डागम / पु. १ / १, १, ८९-९३ ।
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