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________________ अ०११/प्र०७ षट्खण्डागम / ६८९ "--- बहुत विचार करने के बाद हमने श्री पं० रामप्रसाद जी शास्त्री के उनके अपने लेख में गलत और कष्टसाध्य प्रयत्न करने का एक ही निष्कर्ष निकाला है और वह यह है कि वे इस बात से बहुत ही भयभीत हो गये हैं कि यदि सत्प्ररूपणा के ९३ वें सूत्र में 'संयत' पद का समावेश हो गया, तो दिगम्बरसम्प्रदाय की नींव ही चौपट हो जायेगी। परन्तु उन्हें विश्वास होना चाहिये कि ९३ वें सूत्र में संयतपद का समावेश हो जाने पर भी न केवल स्त्रीमुक्ति-निषेधविषयक दिगम्बरमान्यता को आँच आने की सम्भावना नहीं है, अपितु षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणा, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्रकरणगत सूत्रों में परस्पर सामञ्जस्य भी हो जाता है।" ___"हमारे इस कथन का मतलब यह है कि मूडबिद्री की प्राचीनतम प्रति में भी संयत पद मौजूद हो, या न हो, परन्तु सत्प्ररूपणा के ९३वें सूत्र में उसकी (संयतपद की) अनिवार्य आवश्यकता है, हर हालत में वह अभीष्ट है।"१४७ 'संजद' पद होने के पक्ष में कोठिया जी का तर्क अब न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया के निम्नलिखित लेख पर दृष्टि डालें संजद पद के सम्बन्ध में अकलङ्कदेव का महत्त्वपूर्ण अभिमत "षट्खण्डागम के ९३वें सूत्र में 'संजद' पद होना चाहिये या नहीं, इस विषय में काफी समय से चर्चा चल रही है। कुछ विद्वानों का मत है कि "यहाँ द्रव्यस्त्री का प्रकरण है और ग्रन्थ के पूर्वापर सम्बन्ध को लेकर बराबर विचार किया जाता है, तो उसकी ( 'संजद' पद की) यहाँ स्थिति नहीं ठहरती।" अतः षट्खण्डागम के ९३वें सूत्र में 'संजद' पद नहीं होना चाहिये। इसके विपरीत, दूसरे कुछ विद्वानों का कहना है कि यहाँ (सूत्र में) सामान्यस्त्री का ग्रहण है और ग्रन्थ के पूर्वापर सन्दर्भ तथा वीरसेन स्वामी की टीका का सूक्ष्म समीक्षण किया जाता है, तो उक्त सूत्र में 'संजद' पद की स्थिति आवश्यक प्रतीत होती है। अतः यहाँ भाववेद की अपेक्षा से 'संजद' पद का ग्रहण समझना चाहिये। प्रथम पक्ष के समर्थक पं० मक्खनलाल जी मोरेना, पं० रामप्रसाद जी शास्त्री बम्बई, श्री १०५ क्षुल्लक सूरिसिंह जी, और पं० सुखलाल जी काला आदि विद्वान् हैं। दूसरे पक्ष के समर्थक पं० वंशीधर जी इन्दौर, पं० खूबचन्द्र जी शास्त्री बम्बई, पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री बनारस, पं० फूलचन्द्र जी १४७. पं. वंशीधर जी व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ / खं.५/पृ.२३-२४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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