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________________ ६८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र०७ "पं० रामप्रसाद जी शास्त्री का ख्याल है कि क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि की मनुष्यप्ररूपणाओं में केवल मनुष्यणी शब्द पाया जाता है, इसलिये उन सूत्रों में इसका अर्थ भावस्त्री करना चाहिये और सत्प्ररूपणा के ९३ वें सूत्रमें मनुष्यणी शब्दका अर्थ द्रव्यस्त्री करना चाहिए , परन्तु उनका यह ख्याल गलत है, क्योंकि सत्प्ररूपणा, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि सभी प्ररूपणाओं में 'मनुष्यणी' शब्दका अर्थ 'समानरूप से पर्याप्तनामकर्म, स्त्रीवेदनोकषाय और मनुष्यगतिनामकर्म के उदयवाला जीव' ही मुक्ति-पात्र तथा आगमसम्मत है और मनुष्यणी संज्ञावाले इस जीव के ही ९२वें और ९३वें सूत्रों द्वारा यदि वह निर्वृत्त्यपर्याप्तक हालत में है, तो प्रथम और द्वितीय गुणस्थानों की और यदि वह निर्वृत्त्यपर्याप्तक हालत को पारकर गया हो, तो उसके प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ आदि सभी गुणस्थानों की संभावना बतलाई गई है। सत्प्ररूपणा के ९३वें सूत्र में 'मनुष्यणी' शब्द से यदि सिर्फ द्रव्यस्त्री को ही ग्रहण किया जाता है, तो जो जीव दिगम्बरमान्यता के अनुसार द्रव्य से पुरुष और भाव से स्त्री है, उसका ग्रहण उक्त सूत्र में पठित मनुष्यणी शब्द से न हो सकने के कारण उसकी निवृत्त्यपर्याप्तक हालत में चतुर्थ गुणस्थान के प्रसंग को टालने के लिये आगम का कौन-सा आधार होगा, कारण कि दिगम्बर-मान्यता के अनुसार कर्मसिद्धान्त के आधार पर स्त्रीवेदोदयविशिष्ट पुरुष के भी निर्वृत्त्यपर्याप्तक हालत में चतुर्थ गुणस्थान नहीं स्वीकार किया जाता है। इसलिये आगमग्रन्थों में जहाँ भी मनुष्यणी शब्द का उल्लेख पाया जाता है, वहाँ पर उसका अर्थ 'पर्याप्तनामकर्म, स्त्रीवेदनोकषाय और मनष्यगतिनामकर्म के उदयवाला जीव'. ही करना चाहिये। ऐसा अर्थ करने में सिर्फ एक यह शंका अवश्य उत्पन्न होती है कि स्त्रीवेदोदयविशिष्ट मनुष्यगतिनामकर्म के उदयवाले जीव के अधिक-से-अधिक नौ (९) गुणस्थान तक हो सकते हैं। इसलिये इस जीव के १४ गुणस्थानों का कथन करना असंगत और आगमविरुद्ध है। लेकिन इसका समाधान उक्त ९३वें सूत्र की धवलाटीका में कर दिया गया है कि यहाँ पर मनुष्यगतिनामकर्म का उदय प्रधान है और स्त्रीवेदनोकषायका उदय इसका विशेषण है। इसलिये विशेषण के नष्ट हो जाने पर भी विशेष्य का सद्भाव बना रहने के कारण ही मनुष्यणी के १४ गुणस्थानों की सम्भावना बतलायी गयी है। __ "इस प्रकार जब उक्त ९३वें सूत्र में 'मनुष्यणी' शब्द से स्त्रीवेदोदयविशिष्ट द्रव्यपुरुष का ग्रहण भी अभीष्ट है तो क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्ररूपणाओं के अन्तर्गत मनुष्यप्ररूपणावाले सूत्रों के साथ सामञ्जस्य बिठलाने के लिये इस सूत्र में भी संयतपद का सद्भाव अनिवार्य रूप से स्वीकार करना पड़ता है और तब पं० रामप्रसाद जी शास्त्री ने उक्त ९३वें सूत्र में संयतपद का अभाव सिद्ध करने के लिये जिन दलीलों का उपयोग किया है, वे सब निःसार हो जाती हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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