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सप्तम प्रकरण
'संजद' पद छोड़ा नहीं, जोड़ा गया है माननीय डॉ० सागरमल जी ने लिखा है-"यद्यपि दिगम्बरपरम्परा में इस (९३ वें) सूत्र के संजद पद को लेकर काफी ऊहापोह हुआ और मूलग्रन्थ से प्रतिलिपि करते समय कागज और ताम्रपत्र पर की गई प्रतिलिपियों में इसे छोड़ दिया गया। यद्यपि अन्त में सम्पादकों के आग्रह को मानकर मुद्रित प्रति में संजद पद रखा गया
और यह संजद पद भावस्त्री के सम्बन्ध में है, ऐसा मानकर सन्तोष किया गया।" (जै.ध.या.स./ पृ.१०१)।
डॉक्टर सा० के इस वक्तव्य से ऐसा लगता है कि उन्हें यह भ्रम है कि मूलग्रन्थ से प्रतिलिपि करते समय लिपिकारों ने 'संजद' शब्द को इसलिए जानबूझकर छोड़ दिया कि उससे स्त्रीमुक्ति का समर्थन होता था, जो दिगम्बरमान्यता के विरुद्ध है। वास्तविकता यह नहीं है। वास्तविकता यह है कि मूडबिद्री में कन्नड़ लिपि में षट्खण्डागम की जो तीन प्रतियाँ हैं, उनमें से जिस प्रति का नागरी-रूपान्तरण षट्खण्डागम के सम्पादकों को प्राप्त हुआ था, उसमें ९३वें सूत्र में 'संजद' पद नहीं था। अतः नागरी-रूपान्तरण में भी. 'संजद' पद नहीं आया। किन्तु सूत्र की धवलाटीका में जो विवेचन किया गया है, उससे सम्पादकों को प्रतीत हुआ कि वहाँ 'संजद' पद होना चाहिए। अतः उन्होंने सूत्र में 'संजद' पद रखने का निर्णय किया। किन्तु, कुछ विद्वानों को जब इसका पता चला. तो उन्होंने सत्र में 'संजद' पद रखे जाने का विरोध किया. क्योंकि उनका मानना था कि मूलप्रति में 'संजद' पद न होना दिगम्बर जैन मान्यता के अनुरूप है। यदि उसमें 'संजद' पद जोड़ा गया, तो यह प्राचीन दिगम्बरग्रन्थ स्त्रीमुक्ति का समर्थन करनेवाला सिद्ध होगा। उन्हें सूत्र में 'संजद' पद का आरोपण मूलग्रन्थ में परिवर्तन करने की कुचेष्टा प्रतीत हुई। अतः उन्होंने इसका घोर विरोध किया। विरोध के फलस्वरूप विद्वानों के दो वर्ग बन गये, एक सूत्र में 'संजद' पद रखे जाने का विरोधी, दूसरा समर्थक। उनमें इस विषय को लेकर काफी शास्त्रार्थ हुआ, जिसका विवरण दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण नाम से तीन भागों में प्रकाशित किया गया। यह घटना ई० सन् १९३९ से १९४४ के बीच की है।
उस समय दिगम्बरजैन-परम्परा के एकमात्र सर्वमान्य मुनि आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज विद्यमान थे। वे इस प्राचीन धरोहर को सुरक्षित रखने के लिए इसे ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराना चाहते थे। 'संजद'-पद विरोधी विद्वानों ने उन्हें अपने मत से प्रभावित कर ताम्रपत्र में 'संजद' पद को उत्कीर्ण नहीं होने दिया। यह 'संजद'
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