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________________ ६८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र०६ दिगम्बरपरम्परा में तो द्रव्यस्त्रीमुक्ति और द्रव्यनपुंसकमुक्ति दोनों मान्य नहीं है। श्वेताम्बरपरम्परा में भी जन्मजात द्रव्यनपुंसक मनुष्यों की मुक्ति अमान्य की गई है, क्योंकि उन्हें सदा दीक्षा के अयोग्य माना गया है। दीक्षा की अयोग्यता ही उनकी मुक्ति की अयोग्यता है। श्वेताम्बर-परम्परा में केवल छह प्रकार के कृत्रिम नपुंसकों को, जो जन्म से पुरुष या स्त्री होते हैं, मुक्ति के योग्य माना गया है। अतः यह वस्तुतः पुरुष और स्त्री को ही मुक्ति के योग्य माना जाना है, द्रव्यनपुंसकों को नहीं। इसका विस्तार से सप्रमाण निरूपण इसी अध्याय के चतुर्थ प्रकरण में किया जा चुका है। यापनीयसम्प्रदाय श्वेताम्बर-आगमों को ही प्रमाण मानता था, इसलिए उसमें भी द्रव्यनपुंसकों की मुक्ति का अमान्य होना सुनिश्चित है। इसका अन्य प्रमाण यह भी है कि यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में तो ग्रन्थ लिखा है, लेकिन द्रव्यनपुंसक की मुक्ति का कहीं नाम भी नहीं लिया। __अतः यह मानने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है कि षट्खण्डागम में चौदह गुणस्थान भावनपुंसक मनुष्यों (अर्थात् भावनपुंसकवेद के उदय से युक्त द्रव्यपुरुषों) में ही बतलाये गये हैं। इससे सिद्ध है कि षट्खण्डागम में भावनपुंसकमनुष्य की स्वीकृति है। इससे इस बात की भी पुष्टि हो जाती है कि षट्खण्डागम में भावस्त्री की भी स्वीकृति है। इसलिए जैसे षट्खण्डागम में भावनपुंसक में ही चौदह गुणस्थानों का प्रतिपादन सिद्ध होता है, वैसे ही भावस्त्री में ही चौदह गुणस्थानों का प्रतिपादन सिद्ध होता है। अतः षट्खण्डागम में भावस्त्री की ही मुक्ति का विधान है, द्रव्यस्त्री की मुक्ति का नहीं। निष्कर्ष यह कि ९३वें सूत्र में संजद शब्द भावस्त्री के ही सन्दर्भ में उक्त है, द्रव्यस्त्री के सन्दर्भ में नहीं। संजद शब्द-विषयक चर्चा का उपसंहार करते हुए डॉ० सागरमल जी लिखते हैं कि "मूलग्रन्थ में 'संजद' पद की उपस्थिति से षट्खण्डागम मूलतः यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है, इसमें किञ्चित् भी संशय का स्थान नहीं रह जाता है।" (जै.ध.या.स./ पृ.१०२)। किन्तु पूर्वोक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि सत्प्ररूपणा का ९३ वाँ सूत्र श्री मल्लितीर्थंकर के स्त्री होने का तथा स्त्रीवेदनामकर्म के साथ तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध होने का निषेधक है, अतः मूलग्रन्थ में 'संजद' पद भावमानुषी के विषय में ही प्रयुक्त है, यह निर्विवाद है। इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम में गुणस्थान आदि ऐसे अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, जो यापनीयमत के विरुद्ध हैं। इसलिए षट्खण्डागम यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा का है, इसमें संशय के लिए किञ्चित् भी स्थान नहीं रह जाता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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