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अ०११/प्र०६
षट्खण्डागम / ६८३ १. भावपुरुषवेदी पुरुष, २. भावनपुंसकवेदी पुरुष तथा ३. द्रव्यनपुंसक मनुष्य, इन तीनों अर्थों को सूचित करता है
"मणुस्सा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ठाणे सिया पजत्ता सिया अपज्जत्ता।" (ष. खं./ पु.१, १,८९)। "सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजद-संजदट्ठाणे णियमा पजत्ता।" (ष.खं./पु.१ / १,१,९०)। - अनुवाद-"मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी। सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयतगुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होते हैं।" ___ चूँकि इन सूत्रों में मनुष्य शब्द उपर्युक्त तीनों अर्थों का वाचक है, इसलिए इन सूत्रों से यह अर्थ अभिव्यक्त होता है
१. भावपुरुषवेदी-पुरुष मिथ्यादृष्टि, सासादन-सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन तीन गुणस्थानों में तो पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी, किन्तु शेष गुणस्थानों में नियम से पर्याप्त होते हैं।
२. भावनपुंसकवेदी-पुरुष मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी, किन्तु शेष गुणस्थानों में नियम से पर्याप्त ही होते हैं, ठीक भावस्त्रीवेदी पुरुष की तरह।
३. द्रव्यनपुंसक मनुष्य द्रव्यस्त्रियों के समान प्रथम दो गुणस्थानों में तो पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी, परन्तु तृतीय, चतुर्थ और पंचम गुणस्थानों में नियम से पर्याप्त होते हैं। जैसे द्रव्यस्त्रियों में शेष गुणस्थान नहीं होते, वैसे ही इनमें भी शेष गुणस्थान नहीं होते।
द्रव्यनपुंसक की मुक्ति तीनों परम्पराओं में अमान्य इस तरह उपर्युक्त सूत्रों में भावनपुंसक में चौदह गुणस्थानों का प्रतिपादन किया गया है। तथा वेदमार्गणा में भी नौवें गुणस्थान तक नपुंसकवेदियों का अस्तित्व बतलाया गया है,१४२ जिसका तात्पर्य यह है कि षट्खण्डागम में नपुंसकवेदियों की मुक्ति का विधान है। यहाँ विचारणीय है कि नपुंसकवेदी मनुष्यों से तात्पर्य द्रव्यनपुंसक मनुष्यों से है या भावनपुंसक मनुष्यों से?
१४२."णवुसंयवेदा एइंदिय-प्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति।" ष.खं./पु.१ / १,१,१०३ ।
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