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________________ ६८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र०६ अनुवाद-"बाईस-प्रकृतिक स्थान का स्वामी कौन होता है? जिस मनुष्य या मनुष्यिनी के मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय होकर सम्यक्त्व शेष रहता है, वह बाईस-प्रकृतिक स्थान का स्वामी होता है।" इस पर टीका करते हुए श्री वीरसेन स्वामी लिखते हैं "एत्थ वि 'मणुस्सो' त्ति वुत्ते पुरिस-णवंसयवेदजीवाणं गहणं। अण्णहा णवंसयवेदेसु दंसणमोहक्खवणाभावप्पसंगादो।" (ज.ध./क.पा./भा.२ / गा.२२ / पृ.२१३२१४)। अनुवाद-"यहाँ पर भी मणुस्सो ऐसा कहने से पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी मनुष्यों का ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा नपुंसकवेदी मनुष्यों के दर्शनमोहनीय के क्षय के अभाव का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा।" धवलाटीका में भी वीरसेन स्वामी ने कहा है "मणुस-पज्जत्ताणं पि भण्णमाणे मिच्छाइट्टि-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ताव मणुसोधभंगो। अथवा इत्थिवेदेण विणा दो वेदा वत्तव्वा। एत्तियमेत्तो चेव विसेसो।' (धवला / ष.खं./पु.२/१,१/पृ. ५१४)। अनुवाद-"मनुष्य-पर्याप्तकों के भी आलाप कहने पर मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली-गुणस्थान तक मनुष्य-सामान्य के आलापों के समान आलाप जानना चाहिए। अथवा वेद-आलाप कहते समय स्त्रीवेद के बिना दो वेद ही कहना चाहिए, क्योंकि सामान्य मनुष्यों से मनुष्य-पर्याप्तकों में इतनी ही विशेषता है।" इसके हिन्दी-विशेषार्थ में कहा गया है-"जब मनुष्यों के अवान्तर भेदों की विवक्षा न करके पर्याप्त शब्द के द्वारा सामान्य से सभी पर्याप्त मनुष्यों का ग्रहण किया जाता है, तब पर्याप्त मनुष्यों में तीनों वेदवालों का ग्रहण हो जाता है, अतः इस अपेक्षा से पर्याप्त मनुष्यों के आलाप सामान्य-मनुष्यों के समान बतलाये गये हैं। परन्तु जब मनुष्यों के अवान्तरभेदों में से मनुष्य-पर्याप्तकों का ग्रहण किया जाता है, तब मनुष्य-पर्याप्तक पद से पुरुष और नपुंसकवेदी मनुष्यों का ही ग्रहण होता है, क्योंकि स्त्रीवेदी मनुष्यों की आगम में 'मनुष्यिनी' संज्ञा निर्दिष्ट की गई है। मनुष्य के अवान्तर भेदों में 'मनुष्यपर्याप्त' शब्द पुरुष और नपुंसकवेदी मनुष्यों में ही रूढ़ है, इसलिए इस अपेक्षा से मनुष्य-पर्याप्तकों के आलाप कहते समय स्त्रीवेद को छोड़कर आलाप कहे हैं।" (धवला/ष.खं/पु.२ / १,१/पृ.५१४-५१५)। इस प्रकार मनुष्य-पर्याप्त शब्द भावपुरुषवेदी एवं भावनपुंसकवेदी मनुष्यजातीय द्रव्यपुरुषों का वाचक है। इसलिए षट्खण्डागम के निम्नलिखित सूत्रों में मनुष्य शब्द Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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