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अ०११/प्र०६
षट्खण्डागम / ६८१
देवों, नारकियों और भोगभूमि के मनुष्यों एवं तिर्यंचों में वेदवैषम्य नहीं होता, इसलिए उनमें द्रव्यस्त्री और भावस्त्री का भेद नहीं है। कर्मभूमि के पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में वेदवैषम्य होता है, किन्तु उनमें तिर्यंच और तिर्यंचनी, दोनों में आदि के पाँच ही गुणस्थान होते हैं, अतः मोक्ष का प्रसंग न होने से द्रव्यस्त्री और भावस्त्री के भेद की चर्चा नहीं की गयी है। यद्यपि बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि जीव तिर्यंचयोनि की द्रव्यस्त्रियों और भावस्त्रियों में भी उत्पन्न नहीं होते,१४१ किन्तु टीका में इसकी चर्चा करने का कोई प्रसंग नहीं था। मणुसिणी के प्रसंग में तो तीर्थंकर मल्लिनाथ-सम्बन्धी एवं स्त्रीमुक्तिसम्बन्धी श्वेताम्बर-मान्यताओं को अप्रामाणिक सिद्ध करने की आवश्यकता थी, इसलिए सूत्र ९३ की टीका में द्रव्यस्त्री और भावस्त्री की चर्चा उठायी गयी है। मूल में यह चर्चा नहीं है, इससे क्या फर्क पड़ता है? मूल के आधार पर विभिन्न शंकाओं का समाधान करते हुए जिज्ञासु को संशय-विपर्यय एवं अनध्यवसायरहित ज्ञान कराना टीकाकार का कर्त्तव्य है।
भावनपुंसकत्व की स्वीकृति से भावस्त्रीत्व की पष्टि
षट्खण्डागम में भावस्त्रीत्व की मान्यता को पुष्ट करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है भावनपुंसकत्व की स्वीकृति। भावनपुंसक उस मनुष्य को कहा गया है, जो द्रव्य से पुरुष होते हुए भी भावनपुंसकवेद के उदय से युक्त है। इसका अन्तर्भाव मनुष्य शब्द में ही किया गया है, जैसा कि वीरसेन स्वामी ने जयधवलाटीका में स्पष्ट किया
"मणुस्सो त्ति वुत्ते पुरिस-णवंसय-वेदोदइल्लाणं गहणं। मणुस्सिणी त्ति वुत्ते इत्थिवेदोदयजीवाणं गहणं।" (ज.ध/क.पा./ भा.३/३,२२ / ४२६/पृ.२४१)।
___ अनुवाद-"मनुष्य शब्द से पुरुषवेद और नपुंसकवेद के उदय से युक्त मनुष्यों का ग्रहण होता है और मनुष्यिनी शब्द से स्त्रीवेद के उदयवाले मनुष्यों का।"
अन्यत्र भी उन्होंने ऐसा ही प्ररूपित किया है। कसायपाहुड के एक चूर्णिसूत्र में यतिवृषभाचार्य ने कहा है
"बावीसाए विहत्तीओ को होदि? मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा मिच्छत्ते सम्मामिच्छत्ते च खविदे समत्ते सेसे।" (चूर्णिसूत्र / क.पा./ भा.२ / गा.२२ / पृ.२१३)।
१४१.षट्खण्डागम/ पु.१/१,१,८७-८८।
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