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६८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र०७ पद को हटाने की चेष्टा नहीं थी, अपितु नागरी-प्रति में सूत्र जिसरूप में आया था, उसी रूप में रखने का प्रयत्न था। इसी कारण षट्खण्डागम के प्रथम संस्करण में यह पद सूत्र में नहीं आ पाया, यद्यपि जैसा माननीय पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य ने स्वीकार किया है, उन्होंने सूत्र के हिन्दी अनुवाद में 'संयत' पद रख दिया।४३
बाद में सम्पादकों ने मूडबिद्री की अन्य दो प्रतियों से मिलान कराया, तब उनमें 'संजद' पद उपलब्ध हुआ। इससे सूत्र में 'संजद' पद होने की उनकी धारणा सही निकली। तब 'अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्' ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कर सूत्र में 'संजद' पद होने का समर्थन किया, फलस्वरूप षट्खण्डागम के दूसरे संस्करण में तदनुसार संशोधन कर दिया गया। पूज्य पं० गणेशप्रसाद जी वर्णी ने भी सूत्र में 'संजद' पद का होना आवश्यक बतलाया था१४४ और अन्त में पूज्य आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ने भी अपने पूर्वमत में संशोधन कर ताम्रपत्र में 'संजद' पद के समावेश का आदेश दिया था।४५ यह सारा विवरण षट्खण्डागम की प्रथम पुस्तक के द्वितीय संस्करण तथा षट्खण्डागम के सम्पादक माननीय पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य के आलेखों में दिया गया है।१४६
___ इस प्रकार षट्खण्डागम के सम्पादकों ने, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् ने, पूज्य वर्णी जी ने तथा परमपूज्य आचार्य शान्तिसागर जी ने ९३ वें सूत्र में 'संजद' पद रखे जाने का समर्थन श्वेताम्बरों या यापनीयों के दबाव में आकर नहीं किया। यदि इसके रखने से स्त्रीमुक्ति का समर्थन होता, तो दिगम्बर विद्वानों में परस्परविरोधी दो वर्ग न बनते, सबके सब इसे न रखने के लिए एकमत हो जाते
और सूत्र जिस (संजदपदविहीन) रूप में लिप्यन्तर होकर आया था, उसी रूप में रहने देना उनके लिए बड़ा आसान होता। संजद-पद की आवश्यकता बतलानेवाले वीरसेन स्वामी के वचनों की भी वे अन्यथा व्याख्या कर सकते थे, उनके वचनों में परिवर्तन कर सकते थे। इसकी किसी को कानों-कान खबर भी न हो पाती। अथवा इतने कालान्तर की प्रतीक्षा भी न करनी पड़ती, वीरसेन स्वामी स्वयं आज से लगभग १२०० वर्ष पहले ही सूत्र में से संजद पद हटा देते।
१४३. 'सत्प्ररूपणा धवला के ९३ वें सूत्र में संजद पद'। सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री
अभिनन्दन ग्रन्थ/ खण्ड ४/ पृष्ठ ४८३-४८६ । १४४. वही/ खण्ड ४/ पृ. ४८५ । १४५. वही/खण्ड ४/पृ. ४८५-४८६। १४६. वही/खण्ड ४/पृ. ४८३-४८६ तथा 'वात्सल्य रत्नाकर'/ द्वितीय खण्ड/ पृ.२४८-२४९ ।
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