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६७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
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पं० वंशीधर जी व्याकरणाचार्य का मत
आदरणीय पं० वंशीधर जी व्याकरणाचार्य के निम्नलिखित वचनों से भी उपर्युक्त मत का समर्थन होता है
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पुरुष
'सत्प्ररूपणा के ९३ वें सूत्र में मनुष्यणी शब्द से यदि सिर्फ द्रव्यस्त्री को ही ग्रहण किया जाता है, तो जो जीव दिगम्बरमान्यता के अनुसार द्रव्य से और भाव से स्त्री है उसका ग्रहण उक्त सूत्र में पठित मनुष्यणी शब्द से न हो सकने के कारण उसकी निर्वृत्त्यपर्याप्तक हालत में चतुर्थ गुणस्थान के प्रसंग को टालने के लिए आगम का कौन-सा आधार होगा? कारण कि दिगम्बरमान्यता के अनुसार कर्मसिद्धान्त के आधार पर स्त्रीवेदोदयविशिष्ट पुरुष के भी निर्वृत्त्यपर्याप्तक हालत में चतुर्थ, गुणस्थान नहीं स्वीकार किया जाता है। इसलिए आगम-ग्रन्थों में जहाँ भी मनुष्यणी शब्द का उल्लेख पाया जाता है, वहाँ पर उसका अर्थ "पर्याप्तनामकर्म, स्त्रीवेदनोकषाय और मनुष्यगति नामकर्म के उदयवाला जीव ही करना चाहिए ।'
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अ० ११ / प्र० ६
इस वक्तव्य द्वारा माननीय व्याकरणाचार्य जी ने भी ९३वें सूत्र में 'मणुसिणी' शब्द को द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों अर्थों में प्रयुक्त बतलाया है।
इस तरह सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थराजवार्तिक में मानुषी शब्द का द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों अर्थों में प्रयोग तथा द्रव्यमानुषी में आदि के पाँच गुणस्थानों का तथा भावमानुषी में चौदह गुणस्थानों का कथन, षट्खण्डागम में तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध तथा देव - नारकियों की उत्कृष्ट आयु के बन्ध के प्रसंग में मणुसिणी शब्द का भाव स्त्रीअर्थ में प्रयोग और षट्खण्डागम का मन्थन करनेवाले मूर्धन्य विद्वानों के ये मत, इस बात के प्रमाण हैं कि दिगम्बरजैन सिद्धान्त मसिणी या मानुषी शब्द का प्रयोग सभी आचार्यों द्वारा द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों अर्थों में किया गया है । और द्रव्यस्त्रीरूप पर्याप्त मनुष्यनी में आदि के पाँच गुणस्थानों की तथा क्षायिकसम्यक्त्व को छोड़कर शेष दो सम्यग्दर्शनों की योग्यता बतलायी गयी है तथा भावस्त्री - रूप पर्याप्त मनुष्यिनी में चौदह गुणस्थानों एवं तीनों सम्यग्दर्शनों की पात्रता का प्ररूपण किया गया है। अतः दिगम्बर जैन - सिद्धान्त में 'मणुसिणी' शब्द की इस विशिष्ट प्रयोगपरम्परा से सिद्ध होता है कि सत्प्ररूपणा के सूत्र ९२ और ९३ में उक्त शब्द का प्रयोग द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों अर्थों में हुआ है। तथा 'मणुसिणी' में आदि के पाँच गुणस्थान द्रव्यमणुसिणी की अपेक्षा कथित हैं और चौदह गुणस्थान भावमणुसिणी की अपेक्षा । इसी का खुलासा
१३९. पं. वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ / खण्ड ५ / पृ.२३ ।
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