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________________ अ०११ / प्र०६ धवलाटीका में आचार्य वीरसेन है । षट्खण्डागम / ६७९ परम्परा का अनुसरण करते हुए युक्तिपूर्वक किया दिगम्बर जैन - सिद्धान्त में ' मणुसिणी' शब्द की इस विशिष्ट प्रयोगपरम्परा पर दृष्टिपात किये बिना ही माननीय डॉ० सागरमल जी ने यह घोषणा कर दी कि " षट्खण्डागम के सूत्र ८९ से लेकर ९३ तक में केवल पर्याप्त मनुष्य और अपर्याप्त मनुष्य, पर्याप्त मनुष्यनी और अपर्याप्त मनुष्यनी की चर्चा है, द्रव्य और भाव मनुष्य या मनुष्यनी की वहाँ कोई चर्चा नहीं है। अतः इस प्रसंग में द्रव्यस्त्री और भावस्त्री का प्रश्न उठाना ही निरर्थक है।" (जै. ध. या. स. / पृ.१०१-१०२ ) । मैं डॉक्टर सा० से विनयपूर्वक पूछना चाहूँगा कि षट्खण्डागम के जिन सूत्रों में मणुसिणी में तीर्थंकरप्रकृति एवं उत्कृष्ट देवायु और नारकायु का बन्ध प्रतिपादित किया गया है, उनमें भी द्रव्य और भाव मनुष्यिनी की कोई चर्चा नहीं है, तब क्या वहाँ भी द्रव्यस्त्री और भावस्त्री की चर्चा उठाना निरर्थक है ? क्या वहाँ द्रव्यस्त्री को तीर्थंकरप्रकृति और उत्कृष्ट देवायु एवं उत्कृष्ट नारकायु का बन्ध मान लेना चाहिए? क्या यह दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय, तीनों परम्पराओं में मान्य सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं होगा ? अवश्य होगा, अतः वहाँ मनुष्यिनी शब्द से भावस्त्री अर्थ लिये जाने की चर्चा सार्थक है। उन सूत्रों में द्रव्यस्त्री की चर्चा नहीं है, भावस्त्री की चर्चा है, इस सत्य के दर्शन कर्मसिद्धान्त को दृष्टि में रखकर देखनेवाले को हुए बिना नहीं रह सकते। तथा सत्प्ररूपणा के ९२ वें और ९३ वें सूत्रों में जो 'मणुसिणी' शब्द है, उसके द्रव्यस्त्रीरूप और भावस्त्रीरूप दोनों अर्थों के दर्शन इस तथ्य पर ध्यान देने से हो जाते हैं कि उन सूत्रों में प्रतिपादित कर्मसिद्धान्त से श्री मल्लितीर्थंकर का स्त्री होना असिद्ध हो जाता है, अतः षट्खण्डागम स्त्रीमुक्ति की मान्यता को अमान्य करनेवाला दिगम्बरग्रन्थ है । फलस्वरूप ९३ वें सूत्र में जो मनुष्यिनियों में संयतगुणस्थान का प्रतिपादन किया गया है, वह द्रव्यमनुष्यिनियों में उपपन्न नहीं होता । अतः उक्त प्रसंग में ' मणुसिणी' शब्द से भावमनुष्यिनी अर्थ ही अभिप्रेत है। इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम में जो यापनीयमतविरोधी अन्य अनेक सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं, जिनका वर्णन चतुर्थ प्रकरण में किया गया है, उनसे इस तथ्य की दृढ़तया पुष्टि होती है कि षट्खण्डागम शतप्रतिशत दिगम्बरग्रन्थ है। तथा सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि अन्य दिगम्बरग्रन्थों में भी मानुषी के द्रव्यमानुषी और भावमानुषी, ये दो भेद माने गये हैं, ये प्रमाण भी इस सत्य को पुष्ट करते हैं कि ९३ वें सूत्र में प्रयुक्त 'मणुसिणी' शब्द द्रव्यमनुष्यिनी और भावमनुष्यिनी, दोनों अर्थों का प्रतिपादन करता है। यदि डॉक्टर सा० इन तथ्यों पर ध्यान देते, तो उन्हें भी. वहाँ इन दोनों अर्थों की चर्चा अवश्य सुनायी देती । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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