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६७६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र०६
" मानुषीषु पर्याप्तिकासु चतुर्दशापि गुणस्थानानि सन्ति भावलिङ्गापेक्षया, न द्रव्यलिङ्गापेक्षया । द्रव्यलिङ्गापेक्षया तु पञ्चाद्यानि ।" (तत्त्वार्थराजवार्तिक / ९/७/११/ पृ.६०५)।
यदि वीरसेन स्वामी यहाँ ' मणुसिणी' शब्द से केवल भावस्त्री अर्थ ग्राह्य समझते, तो पहले तो वे उक्त सूत्र के आधार पर यह प्रश्न ही न उठाते कि क्या हुण्डावसर्पिणी काल में स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते? क्योंकि यह प्रश्न उन्होंने श्वेताम्बरों की इस मान्यता को असत्य ठहराने के लिए उठाया है कि तीर्थंकर मल्लिनाथ ने सम्यग्दृष्टि होते हुए भी द्रव्यस्त्री की पर्याय में जन्म लिया था। दूसरे यदि उठाते भी, तो इसके समाधान में वे यह कहते कि यहाँ 'मणुसिणी' शब्द केवल भावस्त्रीवाचक है, अतः 'संजद' गुणस्थान का कथन भावस्त्री के ही विषय में होने से द्रव्यस्त्री की मुक्ति का प्रसंग नहीं आता । किन्तु उन्होंने ऐसा समाधान न कर यह कहा है कि “द्रव्यस्त्रियाँ पाँचवें गुणस्थान तक ही पहुँच सकती हैं। इसलिए उनमें संयत गुणस्थान का कथन उपपन्न नहीं होता । चौदह गुणस्थान भावस्त्रियों की अपेक्षा कहे गये हैं ।" इससे स्पष्ट होता है कि वीरसेन स्वामी ९३ वें सूत्र में उल्लिखित 'मणुसिणी' शब्द को प्रथम पाँच गुणस्थानों की अपेक्षा द्रव्यस्त्रीवाचक मानते हैं और चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा भावस्त्रीवाचक |
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न्यायसिद्धान्तशास्त्री पं० पन्नालाल जी सोनी का मत
षट्खण्डागम-रहस्योद्घाटन के कर्त्ता स्व० पं० पन्नालाल जी सोनी ने भी ऐसा ही माना है। वे लिखते हैं
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" इसमें ( सूत्र ९३ की टीका में) आये हुए 'स्त्रीषु' पद का अर्थ द्रव्यस्त्री किया जाता है, जो ठीक नहीं है। ठीक तब हो सकता है, यदि भावस्त्रियों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता हो । परन्तु सम्यग्दृष्टि भावस्त्रियों में भी उत्पन्न नहीं होता। अकलंकदेव पर्याप्त-भावमानुषियों के चौदह गुणस्थानों का और पर्याप्त - द्रव्यमानुषियों के आदि के पाँच गुणस्थानों का होना बताते हैं। इन दोनों तरह की मानुषियों के लिए लिखते हैं। कि "अपर्याप्तिकासु द्वे आद्ये, सम्यक्त्वेन सह स्त्रीजननाभावात् ।" (तत्त्वार्थराजवार्तिक/ ९/७/११/पृ.६०५)। भावलिंगनी और द्रव्यलिंगनी अपर्याप्तिक मानुषियों में आदि के दो ही गुणस्थान होते हैं, क्योंकि सम्यक्त्व के साथ जीव, स्त्रियों में नही जन्मता है । निश्चित है कि उभय प्रकार की स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता है । भगवत्पूज्यपाद कहते हैं मानुषियों में तीनों ही सम्यक्त्व होते हैं, पर्याप्तिक मानुषियों में होते हैं, अपर्याप्तिक
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