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अ०११/प्र०६
षट्खण्डागम/६७५
उत्तर-"यह सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि स्त्रियों के लिए वस्त्रत्याग सम्भव नहीं है। वस्त्रसहित होने के कारण उनमें (अधिक से अधिक) संयतासंयत गुणस्थान होता है, संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती। (जो कि मुक्ति के लिए आवश्यक है)।
प्रश्न-"सवस्त्र होते हुए भी उनमें भावसंयम हो सकता है?
उत्तर-"भावसंयम भी संभव नहीं है, क्योंकि वस्त्रधारण करना भाव-असंयम का लक्षण है। उसके रहते हुए भावसंयम कैसे हो सकता है?
प्रश्न-"फिर 'उनमें चौदह गुणस्थान होते हैं' यह कथन कैसे संगत होगा?
उत्तर-"यह कथन भावस्त्रीविशिष्ट मनुष्यगति की अपेक्षा संगत है (अर्थात् जो मनुष्य भाव से स्त्री तथा द्रव्य से पुरुष है, उसमें चौदह गुणस्थान हो सकते हैं)।
द्रष्टव्य है कि यहाँ वीरसेन स्वामी ने 'मणुसिणी' शब्द के द्रव्यस्त्रीवाचक भी होने तथा सूत्र में संजद' पद के उपस्थित होने के आधार पर ही यह शंका उठाई है कि इस सूत्र से द्रव्यस्त्री की मुक्ति भी सिद्ध होती है। और इसके समाधान में यह कहा है कि द्रव्यस्त्री को अधिक से अधिक संयतासंयत गुणस्थान प्राप्त हो सकता है, संयत गुणस्थान नहीं, इसलिए वह मुक्त नहीं हो सकती। तथा उक्त 'मणुसिणी' शब्द के भावस्त्रीवाचक भी होने के कारण ही कहा है कि इस सूत्र में 'संजद' पद के द्वारा 'मणुसिणी' में जो चौदह गुणस्थान बतलाये गये हैं, वे भावस्त्री की अपेक्षा बतलाये गये हैं, द्रव्यस्त्री की अपेक्षा नहीं। उन्होंने अन्यत्र भी स्पष्ट किया है कि द्रव्यस्त्रियाँ सचेल होने के कारण संयम को प्राप्त नहीं होतीं।१३८
इस स्पष्टीकरण से एकदम साफ हो जाता है कि वीरसेन स्वामी के अनुसार भी प्रस्तुत सूत्र में 'मणुसिणी' शब्द द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों का वाचक है। और किन गुणस्थानों के सन्दर्भ में द्रव्यस्त्री का वाचक है और किन गुणस्थानों के सन्दर्भ में भावस्त्री का, इसका समाधान वीरसेन स्वामी ने दिगम्बरपरम्परा के आधार पर यह किया है कि 'मणुसिणी' शब्द प्रथम पाँच गुणस्थानों की अपेक्षा द्रव्यस्त्री या द्रव्यमानुषी का वाचक है और चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा भावस्त्री या भावमानुषी का। दिगम्बरपरम्परा के आधार पर यह निर्णय इसलिए किया गया है कि ग्रन्थ में प्रतिपादित अन्य सिद्धान्तों की संगति दिगम्बरपरम्परा के ही साथ है, श्वेताम्बर या यापनीय परम्पराओं के साथ नहीं, उनके साथ तो विरोध है। इसके अतिरिक्त पूर्वाचार्यों ने भी इस सूत्र की ऐसी ही व्याख्या की है। यथा
१३८."दव्वित्थिवेदा पुण संजमं ण पडिवजंति, सचेलत्तादो।" धवला/ष.खं/पु.२/१,१/ पृ.५१५ ।
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