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________________ ६७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र०६ के जीवस्थान-सत्प्ररूपणा के ९२-९३वें सूत्रों की व्याख्या में उन्हीं आचार्यों का अनुसरण किया है, अपनी तरफ से कोई नई कल्पना नहीं की है। "सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजद-संजद-ट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ" (ष.ख./पु.१/१,१,९३) इस ९३ वें सूत्र में पूर्ववर्ती ९२ वें सूत्र से अध्याहृत मणुसिणीसु शब्द को वीरसेन स्वामी ने द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों का वाचक माना है। यह उनके निम्नलिखित विश्लेषणों से ज्ञात हो जाता है। "हुण्डावसर्पिण्यां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्ते इति चेत्? नोत्पद्यन्ते। कुतोऽवसीयते? अस्मादेवार्षात्।" (धवला/ष.खं/पु.१ / १,१,९३/ पृ.३३४)। अनुवाद-"क्या हुण्डावसर्पिणी काल में स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते? नहीं होते। यह किस प्रमाण से ज्ञात होता है? इसी आर्ष प्रमाण से (इसी ९३वें सूत्र से)।" यहाँ वीरसेन स्वामी ने 'मणुसिणी' शब्द से द्रव्यस्त्री और भावस्त्री दोनों अर्थ ग्रहण किये हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव दोनों प्रकार की स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होते। यदि यह माना जाय कि यहाँ केवल द्रव्यस्त्री अर्थ विवक्षित है, तो इसका तात्पर्य यह होगा कि आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को भावस्त्रियों के रूप में सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति मान्य है। और यदि केवल भावस्त्री अर्थ विवक्षित मानें, तो यह अभिप्राय होगा कि वे द्रव्यस्त्रियों के रूप में सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति मानते हैं, जब कि ये दोनों बातें सत्य नहीं हैं। अतः इसमें सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं रहती कि षट्खण्डागमकारों ने उपर्युक्त प्रसंग में 'मणुसिणी' शब्द का प्रयोग दोनों ही अर्थों में किया है। श्री वीरसेन स्वामी आगे कहते हैं "अस्मादेवार्षात् द्रव्यस्त्रीणां निर्वृतिः सिद्धयेदिति चेन्न, सवासस्त्वादप्रत्याख्यानगुणस्थितानां संयमानुपपत्तेः। भावसंयमस्तासां सवाससामप्यविरुद्ध इति चेत्? न तासां भावसंयमोऽस्ति, भावासंयमाविनाभावि-वस्त्राद्युपादानान्यथानुपपत्तेः।" कथं पुनस्तासु चतुर्दश गुणस्थानानीति चेन्न, भावस्त्रीविशिष्टमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात्।" (धवला। ष.खं./ पु. १ / १, १,९३ / पृ.३३५)। अनुवाद प्रश्न-"(यदि इस सूत्र में अध्याहृत 'मणुसिणी' शब्द द्रव्यस्त्री का भी वाचक है) तब इसी सूत्र से यह भी सिद्ध होगा कि द्रव्यस्त्रियों की मुक्ति होती है। (क्योंकि सूत्रगत 'संजद' शब्द के द्वारा उनमें चौदह गुणस्थान बतलाये गये हैं)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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