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________________ अ०११/प्र०६ षट्खण्डागम/६७३ २. षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणा-अनुयोगद्वार का ९३वाँ सूत्र स्त्रीमुक्ति-निषेधक है, जब कि यापनीयमत स्त्रीमुक्ति-समर्थक था। ३. षट्खण्डागम का गुणस्थानसिद्धान्त यापनीयसिद्धान्तों के सर्वथा विरुद्ध है। इससे निम्नलिखित यापनीय मान्यताओं का निषेध होता है : मिथ्यादृष्टि की मुक्ति, परतीर्थिक मुक्ति, गृहस्थमुक्ति, शुभाशुभक्रियाओं में प्रवृत्त लोगों की मुक्ति, सम्यग्दृष्टि की स्त्रीपर्याय में उत्पत्ति तथा स्त्री की तीर्थंकरपदप्राप्ति। ४. षट्खण्डागम में तीर्थंकर-प्रकृतिबन्धक सोलह कारणों की स्वीकृति यापनीयमान्यता के विरुद्ध है, क्योंकि यापनीयमत में बीस कारण मान्य हैं। ५. षट्खण्डागम में स्थविरकल्प (आपवादिक सवस्त्र मोक्षमार्ग) की अस्वीकृति यापनीयमत की अस्वीकृति है। ६. षट्खण्डागम में सोलह कल्पों (स्वर्गों) की मान्यता यापनीय-मान्यता के विपरीत है। यापनीयसम्प्रदाय में केवल बारह कल्प मान्य हैं। ७. षट्खण्डागम में नव अनुदिशों का उल्लेख भी यापनीयमत के विरुद्ध है। उसमें नौ अनुदिश नामक स्वर्ग नहीं माने गये हैं। ८. षट्खण्डागम में भाववेदत्रय स्वीकार किया गया है। वह यापनीयों को अस्वीकार्य है। ९. षट्खण्डागम में वेदवैषम्य मान्य है, जिसका यापनीयमत में निषेध किया गया है। इन प्रमाणों को देखकर क्या कोई कह सकता है कि जिस ग्रन्थ में इतने यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन हो, वह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है? जब ये प्रमाण हाथ उठा-उठा कर घोषित कर रहे हैं कि षट्खण्डागम यापनीयपरम्परा से भिन्न परम्परा का ग्रन्थ है, तब 'मणुसिणी' शब्द का अर्थ यापनीय-मान्यता के अनुरूप करना षट्खण्डागम के साथ न्याय नहीं है। धवलाकार द्वारा 'मणुसिणी' शब्द का स्पष्टीकरण पूज्यपाद स्वामी और भट्ट अकलंकदेव के पूर्वोद्धृत वचनों से स्पष्ट है कि दिगम्बरजैन-ग्रन्थों में 'मणुसिणी' शब्द द्रव्यस्त्री और भावस्त्री के अर्थ में आचार्यपरम्परा से प्रयुक्त होता चला आ रहा है। (देखिए , शीर्षक १०.४)। वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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