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________________ ६७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र०६ के सन्दर्भ में सप्तम १३७ गुणस्थान मानने पर उसमें १४ गुणस्थान भी मानने होंगे और फिर स्त्रीमुक्ति भी माननी होगी। किन्तु जब देव, मनुष्य, तिर्यंच आदि किसी के भी सम्बन्ध में मूल ग्रन्थ में द्रव्य और भाव की चर्चा का प्रसंग नहीं उठाया गया, तो टीका में मनुष्यनी के सम्बन्ध में यह प्रसंग उठाना केवल साम्प्रदायिक आग्रह का ही सूचक है। वस्तुतः प्रस्तुत ग्रन्थ यापनीयसम्प्रदाय का रहा है। चूँकि उक्त सम्प्रदाय स्त्रीमुक्ति को स्वीकारता था, अतः उसे यह सूत्र रखने में कोई आपत्ति हो नहीं सकती थी। समस्या तो उन टीकाकार आचार्यों के सामने आई जो, स्त्रीमुक्ति का निषेध करनेवाली दिगम्बरपरम्परा की मान्यता के आधार पर इसका अर्थ करना चाहते थे। अतः मूल ग्रन्थ में संजद पद की उपस्थिति से षट्खण्डागम मूलतः यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है, इसमें किंचित् भी संशय का स्थान नहीं रह जाता है।" (जै.ध.या.स./पृ.१०११०२)। इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि डॉ० सागरमल जी ने षट्खण्डागम के शब्दप्रयोग की असाधारणता पर ध्यान दिये बिना 'मनुष्यिनी' शब्द का लोकप्रसिद्ध अर्थ लेकर ही स्तन-योनिवाली द्रव्यस्त्री में 'संजद' (संयत) गुणस्थान का कथन मान लिया है। अपनी इस भ्रान्त अवधारणा के आधार पर ही उन्होंने यह घोषित कर दिया है कि "मूलग्रन्थ में 'संजद' पद की उपस्थिति से षट्खण्डागम मूलतः यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है, इसमें किंचित् भी संशय का स्थान नहीं रह जाता है।" यतः डॉक्टर सा० का यह निर्णय भ्रान्त अवधारणा पर आधारित है, इसलिए इसमें संशय ही संशय के लिए स्थान है। पूर्व में षट्खण्डागम के वे सूत्र उद्धृत किये गये हैं, जिनमें 'मणुसिणी' को तीर्थंकरप्रकृति, उत्कृष्ट देवायु और उत्कृष्ट नारकायु का बन्ध करनेवाला बतलाया गया है। किन्तु दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय, तीनों परम्पराओं में द्रव्यस्त्री को इन प्रकृतियों का बन्धक स्वीकार नहीं किया गया है। इससे सिद्ध है कि षट्खण्डागम में उपर्युक्त सन्दर्भ में 'मणुसिणी' शब्द का प्रयोग भावस्त्री (भाव से स्त्री, किन्तु द्रव्य से पुरुष) के ही अर्थ में किया गया है। अतः डॉक्टर सा० की यह अवधारणा मिथ्या सिद्ध हो जाती है कि षट्खण्डागम में भावस्त्री की कोई चर्चा नहीं है, अत एव वह यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त हम इन तथ्यों का भी उद्घाटन कर चुके हैं कि १. षट्खण्डागम की रचना ईसापूर्व प्रथम शताब्दी में हुई थी, उस समय यापनीयसम्प्रदाय का उदय ही नहीं हुआ था। १३७. 'संयत' होना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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