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षष्ठ प्रकरण 'मणुसिणी' शब्द केवल द्रव्यस्त्रीवाचक : इस मत का निरसन
षट्खण्डागम, सर्वार्थसिद्धि तथा तत्त्वार्थराजवार्तिक के पूर्वोक्त उद्धरणों से सिद्ध है कि दिगम्बरजैन-कर्मसाहित्य में मानुषी या मणुसिणी (मनुष्यिनी) शब्द द्रव्यस्त्री
और भावस्त्री दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। अतः षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में जहाँ 'मानुषी' या 'मणुसिणी' में संयतगुणस्थान बतलाये गये हैं, वहाँ द्रव्यस्त्री से तात्पर्य न होकर भावस्त्री (भाव से स्त्री, किन्तु द्रव्य से पुरुष) से तात्पर्य है। किन्तु दिगम्बरजैनकर्मसिद्धान्त की भाषा से अनभिज्ञ विचारक अथवा अभिज्ञ होते हुए भी उसकी उपेक्षा करनेवाले अध्येता 'मणुसिणी' शब्द से लोकप्रसिद्ध 'स्तन-योनि आदि अंगों से युक्त स्त्री' अर्थ ही लेते हैं और यह निष्कर्ष निकालते हैं कि षट्खण्डागम में स्त्रीमुक्ति का प्रतिपादन किया गया है। इसी लोकानुगामिनी दृष्टि से काम लेकर प्रसिद्ध दिगम्बरविद्वान् प्रो० डॉ० हीरालाल जी जैन ने यह प्रतिपादित करने की चेष्टा की है कि दिगम्बरजैनसम्प्रदाय में भी स्त्रीमुक्ति मान्य थी।१३६ और इसी लोकानुसारिणी चक्षु से अवलोकन कर श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सागरमल जी जैन ने षट्खण्डागम को दिगम्बरसम्प्रदाय का ग्रन्थ न मानकर यापनीयसम्प्रदाय का ग्रन्थ माना है। वे लिखते हैं
"षट्खण्डागम के यापनीयपरम्परा से सम्बन्धित होने का सबसे महत्त्वपूर्ण एवं अन्यतम प्रमाण उसमें सत्प्ररूपणा नामक अनुयोगद्वार का ९३वाँ सूत्र है, जिसमें पर्याप्त मनुष्यनी (स्त्री) में संयतगुणस्थान की उपस्थिति को स्वीकार किया गया है, जो प्रकारान्तर से स्त्रीमुक्ति का सूचक है। यद्यपि दिगम्बरपरम्परा में इस सूत्र के संजद पद को लेकर काफी ऊहापोह हुआ है और मूलग्रन्थ से प्रतिलिपि करते समय कागज और ताम्रपत्र पर की गई प्रतिलिपियों में इसे छोड़ दिया गया। यद्यपि अन्त में सम्पादकों के आग्रह को मानकर मुद्रित प्रति में संजद पद रखा गया और यह संजद पद भावस्त्री के सम्बन्ध में है, ऐसा मानकर सन्तोष किया गया। प्रस्तुत प्रसंग में मैं उन सभी चर्चाओं को उठाना नहीं चाहता, केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि षट्खण्डागम के सूत्र ८९ से लेकर ९३ तक में केवल पर्याप्त मनुष्य और अपर्याप्त मनुष्य, पर्याप्त मनुष्यनी और अपर्याप्त मनुष्यनी की चर्चा है, द्रव्य और भाव मनुष्य या मनुष्यनी की वहाँ कोई चर्चा नहीं है। अतः इस प्रसंग में द्रव्यस्त्री और भावस्त्री का प्रश्न उठाना ही निरर्थक है। धवलाकार स्वयं भी इस स्थान पर शंकित था, क्योंकि इससे स्त्रीमुक्ति का समर्थन होता है। अतः उसने अपनी टीका में यह प्रश्न उठाया है कि मनुष्यनी
१३६. देखिए, 'दिगम्बर जैन सिद्धान्त दर्पण'। भाग १,२,३ ।
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