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________________ अ०११ / प्र०५ षट्खण्डागम / ६६९ किया गया मान लिया जायेगा, जिससे सम्पूर्ण निरूपण मिथ्या हो जायेगा। इससे सिद्ध है कि षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में भावस्त्रीवेदयुक्त पुरुष को मुख्यवृत्त्या ही 'मणुसिणी' या 'मानुषी' शब्द से अभिहित किया गया है। लोकभाषा और आगमभाषा में सर्वत्र समानता नहीं होती । 'मणुसिणी' शब्द लोकभाषा में भले ही केवल द्रव्यस्त्री का वाचक हो, किन्तु आगमभाषा में द्रव्यस्त्री और भावस्त्री ( भावस्त्री-वेद के उदय से युक्त पुरुष) दोनों का वाचक है। जिनागम में वह दो प्रकार की स्त्रियों का वाचक होने से अनेकार्थक शब्द है । अतः दोनों अर्थों में वह मुख्यार्थरूप से ही प्रयुक्त हुआ है और प्रकरण आदि के द्वारा यह निश्चित होता है कि वह वहाँ द्रव्यस्त्री का वाचक है या भावस्त्री का । अतः आगम में जहाँ मानुषी या स्त्री के सिद्ध होने का कथन है, वहाँ भावस्त्री से ही अभिप्राय है, द्रव्यस्त्री से नहीं । ५. शाकटायन मानते हैं कि स्त्रीवेद का उदय होने पर नामकर्म स्त्रीशरीर का निर्माण करता है, पुरुषवेद का उदय होने पर पुरुषशरीर का और नपुंसकवेद के उदय में नपुंसक शरीर का । इस तरह प्रत्येक जीव के द्रव्यवेद और भाववेद में सदा साम्य रहता है। किन्तु ज्ञातृधर्मकथाङ्ग में मल्लीकथा के प्रकरण में ऐसा नहीं बतलाया गया है। उसमें तो यह बतलाया गया है कि महाबल ने स्त्रीनामगोत्रकर्म अर्जित किया था, उसी के कारण तीसरे भव में स्त्रीशरीर प्राप्त हुआ था । इससे यह स्पष्ट होता है कि स्त्रीनामगोत्रकर्म में ही स्त्रीशरीर के निर्माण की योग्यता है, उसके लिए भावस्त्रीवेद के सहयोग की आवश्यकता नहीं है। उदयागत भाववेद के निमित्त से द्रव्यवेद का उदय या रचना होती है, यह मत आगम और युक्ति के विरुद्ध है, इसका युक्तिप्रमाणपूर्वक प्रतिपादन आगे अष्टमं प्रकरण में द्रष्टव्य है । · ६. पाल्यकीर्ति शाकटायन ने वेदवैषम्य की मान्यता को अनुचित ठहराने के लिए एक कारण यह बतलाया है कि उससे मुनिसंघ में साथ रहनेवाले पुरुषवेदी और स्त्रीवेदी मुनियों के बीच ब्रह्मचर्यभंग होने की स्थिति आ सकती है । किन्तु वेदवैषम्य को न मानते हुए भी पाल्यकीर्ति ने यह स्वीकार किया है कि भाववेदसामान्य के विकृत परिणमन से एक पुरुष में दूसरे पुरुष के साथ पुरुषवत् या स्त्रीवत् रमण करने की इच्छा उत्पन्न हो सकती है। अतः इस मानवस्वभाव के कारण भी संघ के मुनियों में उक्त स्थिति का आना संभव है। यदि इस मानवस्वभाव के कारण उक्त स्थिति नहीं आ सकती, तो वेदवैषम्यजनित स्वभाव के कारण भी नहीं आ सकती। और वेदवैषम्य के कारण शाकटायन ने जो समलैंगिक विवाह की संभावना प्रकट की है, वह तो समलैंगिक सम्बन्ध के रूप में अनादिकाल से प्रचलित है तथा पाश्चात्य देशों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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