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________________ ६६८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११ / प्र०५ २. शाकटायन वेदवैषम्य नहीं मानते, किन्तु यह स्वीकार करते हैं कि कोई पुरुष किसी अन्य पुरुष के साथ स्त्रीवत् व्यवहार करते हुए देखा जाता है और कोई स्त्री किसी अन्य स्त्री के साथ पुरुषवत् व्यवहार करते हुए । यह वेदवैषम्य की ही स्वीकृति है । इसे शाकटायन ने पुरुषवेद की स्त्रीवेद के रूप में और स्त्रीवेद की पुरुषवेद के रूप में विकृत अभिव्यक्ति मानी है। इस विकृति की उत्पत्ति ही वेद के विषम हो जाने का लक्षण है । शाकटायन के अनुसार भले ही यह अस्थायी हो, पर है सत्य । ३. पाल्यकीर्ति शाकटायन ने स्वीकार किया है कि लोक में स्त्रैणभावों से युक्त पुरुष के लिए गौणरूप (उपचारत:) स्त्री शब्द का प्रयोग होता है। इससे सिद्ध है कि किसी पुरुष में भावस्त्रीत्व की सत्ता होना एक तथ्य है, जिसे षट्खण्डागम, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि दिगम्बरग्रन्थों में प्ररूपित किया गया है। ४. लोक में केवल स्तन - योनि आदि अवयवों से युक्त मानवशरीरधारी को ही स्त्री कहा जाता है, इसलिए किसी स्त्रैणभावयुक्त पुरुष को स्त्री कहना 'स्त्री' शब्द का गौणरूप या उपचाररूप से प्रयोग माना जाता है । किन्तु षट्खण्डागम आदि दिगम्बरजैनग्रन्थों में विग्रहगतिवाले शरीररहित जीव के लिए केवल मनुष्यगतिनामकर्म एवं स्त्रीवेदनोकषायकर्म के उदय से मनुष्यिनी शब्द का उसी प्रकार मुख्यरूप से प्रयोग किया गया है, जिस प्रकार स्तनयोनि आदि अंगोपांगों से युक्त मनुष्यजातीय जीव के लिए किया गया है। (देखिये, पूर्वशीर्षक १०.१ एवं १०.४) । अतः उक्त ग्रन्थों में स्त्रैणभावों से युक्त पुरुष के लिए किया गया 'मनुष्यिनी' या 'मानुषी' शब्द का प्रयोग गौण या उपचरित नहीं है। दिगम्बरीय और श्वेताम्बरीय आगमों के अनुसार मनुष्य की स्त्रैणभावयुक्त पुरुषपर्याय कोई काल्पनिक पर्याय नहीं है, अपितु भावस्त्रीवेद और द्रव्यपुरुषवेद के उदय से उत्पन्न वास्तविक अवस्था है । और आगम में उक्त प्रकार के मनुष्य को मुख्यवृत्त्या मणुसिणी या मानुषी कहा गया है, अतः इस नाम को गौणार्थरूप से या लाक्षणिकरूप से प्रयुक्त मानने की आवश्यकता नहीं है । षट्खण्डागम, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि दिगम्बरजैनशास्त्र कोई उपन्यास, कथाग्रन्थ या नाट्यग्रन्थ नहीं हैं, जिनमें हासपरिहास, कटाक्ष आदि करने के लिए किसी स्त्रैणभावयुक्त पुरुषपात्र को उपचार से स्त्री, मनुष्यनी अथवा मानुषी शब्द से अभिहित किया जाय । वे सिद्धान्तग्रन्थ हैं। उनका प्रयोजन कर्मसिद्धान्त के अनुसार निर्धारित किये गये मनुष्य, मनुष्यिनी आदि नामवाले जीवों की विभिन्न अवस्थाओं का निरूपण करना है। यह जीवों को गौण, उपचरित या लाक्षणिक शब्द अर्थात् परशब्द से अभिहित किये जाने पर संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा करने पर अन्य के विषय में किया गया निरूपण किसी अन्य के विषय में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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