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अ०११/प्र०५
षट्खण्डागम/६६७
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि शाकटायन ने स्त्रीसदृशस्वभाववाले पुरुष के लिए प्रयुक्त 'स्त्री' शब्द को गौण या उपचरित शब्द माना है। इस उपचरित शब्द के प्रयोग का प्रयोजन पुरुष के स्त्रीसदृशस्वभाव को द्योतित कर हास-परिहास, कटाक्ष आदि करना होता है। अतः इस प्रयोजन के होने पर ही स्त्रैण पुरुष के लिए 'स्त्री' शब्द का प्रयोग किया जा सकता है, सामान्य व्यवहार में नहीं। इसका कारण यह है कि ऐसा प्रयोग अस्वाभाविक या असत्य होता है, इसलिए उससे युक्तिसंगत व्यवहार की सिद्धि नहीं होती। शाकटायन की उक्त मान्यता से यह तर्क फलित होता है कि आगम में हास-परिहास, कटाक्ष (व्यंग्य) आदि करने का प्रयोजन नहीं होता, अतः उसमें 'स्त्री' शब्द का प्रयोग भावस्त्रीवेदयुक्त-पुरुष के अर्थ में नहीं, अपितु द्रव्यस्त्री के ही अर्थ में हुआ है। इसलिए द्रव्यस्त्री का मोक्ष होना आगमसम्मत है। ___यद्यपि आगम में पुद्गलसंयुक्त मनुष्यादि जीवपर्यायों को उपचार से जीव कहा गया है, पुद्गलकर्मों की उत्पत्ति के निमित्तभूत जीव को उपचार से उनका कर्ता बतलाया गया है तथा शुद्धोपयोग का साधक होने की अपेक्षा सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग को उपचार से 'मोक्षमार्ग' संज्ञा दी गयी है, किन्तु इसका प्रयोजन स्थूल से सूक्ष्म या दृश्य से अदृश्य-उपदेशपद्धति के द्वारा आत्मादि पदार्थों के स्वरूप को बोधगम्य बनाकर शिष्यों को ज्ञानी बनाना है (स.सा. / गा.८, पुरुषार्थसिद्धयुपाय / कारिका ६), परिहासादि करना नहीं। किन्तु किसी पुरुष को स्त्री कहकर उसके स्त्रैणभावों की जो व्यंजना की जाती है, उससे श्रोताओं को किसी अज्ञात तथ्य का ज्ञान नहीं होता, श्रोता भी उसके स्त्रैणभावों का अनुभव करते हैं, अतः उसका एकमात्र प्रयोजन उपचारकथनपद्धति (लक्षणा-व्यंजनाशक्ति) के प्रभाव से हास-परिहास, कटाक्ष आदि करना ही होता है। ऐसे उपचार या उपचरित शब्द का प्रयोग आगम में नहीं होता।
शाकटायन की वेदवैषम्य-विरोधी युक्तियों का निरसन १. शाकटायन ने कहा है कि पुरुष में स्त्रीवेद के तथा स्त्री में पुरुषवेद के उदय का कोई प्रमाण नहीं है। किन्तु पूर्व में दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों से इसके अनेक प्रमाण दिये जा चुके हैं। षट्खण्डागम में जिस मणुसिणी को तीर्थंकरप्रकृति, उत्कृष्ट देवायु और उत्कृष्ट नारकायु का बन्ध बतलाया गया है, वह भावमानुषी ही है और वह भावमानुषीत्व वेदवैषम्य (द्रव्यपुरुष में भावस्त्रीवेद के उदय) पर ही आश्रित है। इससे पाल्यकीर्ति शाकटायन की यह मान्यता भी निरस्त हो जाती है, कि आगम में 'मानुषी' शब्द का प्रयोग केवल 'द्रव्यस्त्री' के अर्थ में किया गया है।
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