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________________ पंचम प्रकरण यापनीयों की वेदवैषम्यविरोधी युक्तियों का निरसन यापनीय-आचार्य शाकटायन की वेदवैषम्यविरोधी युक्तियाँ दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं को मान्य तथा षट्खण्डागम में प्रतिपादित वेदवैषम्य यापनीयों को अमान्य है। यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन (नौवीं शताब्दी ई०) ने वेदवैषम्य को अप्रामाणिक घोषित किया है। उन्होंने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में एक लघुकाय ग्रन्थ स्त्रीनिर्वाण-प्रकरण लिखा है। उसमें स्त्रीमुक्ति की पुष्टि के लिए अनेक तर्क दिये हैं और दिगम्बरग्रन्थों में जिन तर्कों से स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया है, उन तर्कों का अपने मतानुसार खण्डन किया है। शाकटायन ने स्त्रीमुक्ति के समर्थन में आगमप्रमाण देते हुए कहा है कि मथुरागम (मथुरावाचना में संकलित श्वेताम्बरआगम उत्तराध्ययनसूत्र) के कथनानुसार एक समय में ८०० पुरुष, २० स्त्रियाँ और १० नपुंसक सिद्ध हो सकते हैं।१३१ इस तरह स्त्रीमुक्ति आगम से समर्थित है। __ इस पर दिगम्बराचार्य कहते हैं कि यह ठीक है कि मथुरागम में इस प्रकार का कथन है, पर हमारा मानना है कि वहाँ 'स्त्री' शब्द का आशय स्तन, गर्भाशय आदि अंगों से युक्त द्रव्यस्त्री नहीं है, अपितु भावस्त्रीवेद के उदय से युक्त द्रव्यपुरुष है, जिसे आगम में भावस्त्री कहा गया है। इस तरह आगम में जो यह कथन है कि एक समय में २० स्त्रियाँ सिद्ध हो सकती हैं, उसका अर्थ यह है कि एक समय में २० भावस्त्रियाँ अर्थात् भावस्त्रीवेद के उदय से युक्त २० पुरुष सिद्ध हो सकते हैं।१३२ दिगम्बराचार्यों का कथन है कि षट्खण्डागम आदि दिगम्बरग्रंथों में 'मणुसिणी' १३१. क- अष्टशतमेकसमये पुरुषाणामादिरागमः (माहुरागमे) सिद्धिः (सिद्धम्)। स्त्रीणां न मनुष्ययोगे गौणार्थो मुख्यहानिर्वा ॥ ३४॥ स्त्रीनिर्वाणप्रकरण। ख- " This is the principal scripture regarding Siddhahood, which says that in any moment eight hundred men attain moksa and (twenty) women." (Translation of the above officht by Padmanabh S. Jaini, Gender And Salvation, p.76). ग- "---इस गाथा का अर्थ यह है कि एक समय में आठ सौ पुरुष निर्वाण को प्राप्त करते हैं---।" प्रो. उदयचन्द्र जैन : न्यायकुमुदचन्द्र-परिशीलन / पृ. ४५१ । घ- दस चेव नपुंसेसु वीसं इत्थियासु य। पुरिसेसु य अट्ठसयं समएणेगेण सिज्झइ॥ ३६ /५१॥ उत्तराध्ययन सूत्र । १३२. (The opponent) might say : True, there does indeed exist (such a scripture) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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