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६६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र०४
इस प्रकार षट्खण्डागम में भावस्त्रीवेदी पुरुष को तीर्थंकरप्रकृति, उत्कृष्ट देवायु एवं उत्कृष्ट नारकायु के बन्ध का प्रतिपादन किये जाने से सिद्ध है कि उसमें वेदवैषम्य स्वीकार किया गया है और उसके आधार पर ऐसे पुरुष को मणुसिणी शब्द से अभिहित किया गया है, जो द्रव्य (शरीर) से तो पुरुष है, किन्तु भाव से स्त्री। और ऐसी ही मणुसिणी को षट्खण्डागम में 'संजद' (संयत) गुणस्थान की प्राप्ति, तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध, तथा नारकायु एवं देवायु की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध बतलाया गया है। यापनीयमत में यह वेदवैषम्य मान्य नहीं है। इससे भी सिद्ध है कि षटखण्डागम यापनीयमत का ग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। यह षट्खण्डागम के यापनीयग्रन्थ न होने का नौवाँ प्रमाण है। अगले प्रकरण में यापनीयों की वेदवैषम्यविरोधी युक्तियों का निरूपण और निरसन किया जा रहा है।
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