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________________ ६५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११/प्र०४ असिन्नि सरिसिव पक्खी ससीह उरगिंछि जंति जा छटुिं। . कमसो उक्कोसेणं सत्तम पुढवी मणुय मच्छा ॥१२९ अनुवाद-"असैनी जीव पहले नरक तक, पेट के सहारे रेंगनेवाले गोह, नेवला आदि दूसरे नरक तक, पक्षी तीसरे नरक तक, सिंह आदि पशु चौथे नरक तक, उरग पाँचवें नरक तक, स्त्री छठे नरक तक और मनुष्य तथा मत्स्य सातवें नरक तक जा सकते हैं।" चूँकि वज्रवृषभनाराच-संहननधारी ही सातवें नरक तक जा सकता है और स्त्री सातवें नरक में जाती नहीं है, इससे सिद्ध है कि उसके वज्रवृषभनाराच-संहनन नहीं होता। तथा प्रकरणरत्नाकर का कथन है कि प्रथम संहननवाले जीव में ही अच्युत स्वर्ग से ऊपर जाने की क्षमता है छेवढेण उ गम्मइ चउरो जा कप्पकीलियाईसु। ' चउसु दु दु कप्प वुड्डी पढमेणं जाव सिद्धी वी॥१३० अनुवाद-"छठे संहननवाला चौथे स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है, पाँचवें संहननवाला पाँचवें-छठे स्वर्ग तक, चौथे संहननवाला सातवें-आठवें स्वर्ग तक, तीसरे संहननवाला नौवें-दसवें स्वर्ग तक और दूसरे संहननवाला ग्यारहवें-बारहवें स्वर्ग तक जन्म ले सकता है। जो प्रथम संहननवाला है वह उससे ऊपर अहमिन्द्रों में उत्पन्न हो सकता है और मुक्ति भी प्राप्त कर सकता है।" इस प्रकार श्वेताम्बरों और श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवाले यापनीयों की मान्यता के अनुसार भी द्रव्यस्त्री प्रथम-संहननधारी न होने से अच्युत स्वर्ग से ऊपर जन्म नहीं ले सकती। इससे सिद्ध है कि जब वह ग्रैवेयकदेवों की आयु का भी बन्ध नहीं कर सकती, तब अनुत्तर विमानों के देवों की उत्कृष्ट आयु का बन्ध तो हरगिज नहीं कर सकती। फिर भी षट्खण्डागम के पूर्वोद्धृत सूत्र (पु.११ / ४,२,६,१२/ पृ.११३) में स्त्रीवेदवाले मनुष्यों के उत्कृष्ट देवायु के बन्ध का विधान किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि वहाँ भावस्त्रीवेदवाले मनुष्य से तात्पर्य है, द्रव्यस्त्रीवेदवाले से नहीं। अर्थात् उक्त सूत्र में उस मनुष्य को उत्कृष्ट देवायु का बन्धक कहा गया है, जो द्रव्य से तो पुरुषवेदी (पुरुषशरीरवाला) है, किन्तु भाव से स्त्रीवेदी। इससे भी षट्खण्डागम में वेदवैषम्य की स्वीकृति एवं तदाश्रित भावस्त्री-द्रव्यपुरुष-वाचक मणुसिणी' शब्द का प्रयोग होना प्रमाणित होता है। १२९. प्रकरणरत्नाकार / भाग ४/ संग्रहणीसूत्र / गाथा २३४ / पृ.१३५ । १३०. प्रकरणरत्नाकार / भाग ४/ संग्रहणीसूत्र / गाथा १६० / पृ.१००। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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