SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 710
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र.४ "अण्णदरस्स मणुस्सस्स वा पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स वा सण्णिस्स सम्माइट्ठिस्स वा (मिच्छाइट्ठिस्स वा) सव्वाहि पजत्तीहि पजत्तयदस्स कम्मभूमियस्स वा कम्मभूमिपडिभागस्स वा संखेजवासाउअस्स इत्थिवेदस्स वा पुरिसवेदस्स वा णउंसयवेदस्स वा जलचरस्स वा थलचरस्स वा सागार-जागार-तप्पाओग्गसंकिलिट्ठस्स वा (तप्पाओगविसुद्धस्स वा) उक्कस्सियाए आबाधाए जस्स तं देवणिरयाउअं पढमसमए बंधंतस्स आउअवेयणा कालदो उक्कस्सा।" (ष.खं/पु.११/४,२,६,१२ / पृ.११३)। अनुवाद-"जो मनुष्य या पंचेन्द्रिय तिर्यंच संज्ञी है, सम्यग्दृष्टि (अथवा मिथ्यादृष्टि) है, सब पर्याप्तियों से पर्याप्त है, कर्मभूमि या कर्मभूमिप्रतिभाग में उत्पन्न हुआ है, संख्यातवर्ष की आयुवाला है, स्त्रीवेद, पुरुषवेद या नपुंसकवेद से संयुक्त है, जलचर अथवा थलचर है, साकार उपयोग से सहित है, जागरूक है, तत्प्रायोग्य संक्लेश (अथवा विशुद्धि) से संयुक्त है, तथा जो उत्कृष्ट आबाधा के साथ देव व नारकियों की उत्कृष्ट आयु को बाँधनेवाला है, उसके बाँधने के प्रथम समय में आयुकर्म की वेदना, काल की अपेक्षा उत्कृष्ट होती है।" १०.११. तीनों परम्पराओं में द्रव्यस्त्री को उत्कृष्ट नारकायु के बन्ध का निषेध किन्तु दिगम्बर, श्वेताम्बर और श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण माननेवाले यापनीय, इन तीनों सम्प्रदायों में द्रव्यस्त्री को उत्कृष्ट नारकायु के बन्ध का निषेध है, क्योंकि उत्कृष्ट नारकायु सातवें नरक में होती है और सातवें नरक में जाने योग्य क्रूरपरिणाम स्त्री के नहीं होते, अतएव स्त्री की गति केवल छठवें नरक तक बतलाई गयी है। दिगम्बरपरम्परा के प्राचीन ग्रन्थ मूलाचार का कथन है आ पंचमित्ति सीहा इत्थीओ जंति छट्ठिपुढवित्ति। गच्छंति माधवीत्ति य मच्छा मणुया य ये पावा॥ ११५६॥ अनुवाद-"सिंह पाँचवी पृथ्वी तक जाता है, स्त्रियाँ छठी पृथिवी तक जाती हैं और जो पापी मत्स्य और मनुष्य होते हैं, वे सातवीं पृथिवी पर्यन्त जाते हैं।" श्वेताम्बरपरम्परा में पण्णवणासुत्त बहुत पुराना ग्रन्थ माना जाता है, उसके प्रथम भाग (सूत्र ६४७ / पृ.१७४) में भी यही बात कही गयी है छट्टि च इत्थियाओ, मच्छा मणुया य सत्तमिं पुढविं। एसो परमुववाओ बोधव्वो नरयपुढवीणं॥ १८४॥ अतः जब तीनों परम्पराओं में द्रव्यस्त्री के सातवें नरक की आयु बाँधने का निषेध है, तब सिद्ध हो जाता है कि षट्खण्डागम के उपर्युक्त सूत्र में उत्कृष्ट नारकायु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy