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________________ अ०११/प्र.४ षट्खण्डागम/६५५ औषधोपहत-कोई औषधि देकर जिन स्त्री-पुरुषों का स्त्रीत्व और पुरुषत्व नष्ट कर दिया जाता है, वे औषधोपहत नपुंसक कहलाते हैं।१२५ __ ऋषिशप्त-ऋषिशप्त नपुंसक उन्हें कहा जाता है, जो किसी ऋषि के शाप से नपुंसक बना दिये जाते हैं।१२५ देवशप्त-किसी देवता के शाप से नपुंसक बनाये गये स्त्री-पुरुष की देवशप्त संज्ञा है।२५ ये छह कृत्रिम नपुंसक जो वास्तव में जन्म से द्रव्य-पुरुष या द्रव्य-स्त्री ही होते हैं, दीक्षा के योग्य माने गये हैं। पूर्वोक्त दस प्रकार के नपुंसक वास्तविक नपुंसक अर्थात् जन्मजात द्रव्यनपुंसक हैं, उन्हें दीक्षा के अयोग्य बतलाया गया है। यथा "एते च पण्डकादयो दशापि प्रव्राजयितुमयोग्याः। --- एते वर्द्धितादयः षडपि यद्यप्रतिसेवकास्तदा प्रव्राजयितव्याः।"१२६ इस तरह श्वेताम्बरों तथा श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानने वाले यापनीयों के मत में भी द्रव्यनपुंसक दीक्षा के योग्य नहीं माने गये हैं। सदा दीक्षा के अयोग्य होने से सिद्ध है कि ये मुक्ति के अयोग्य हैं। ऐसा होने पर भी षट्खण्डागम में नपुंसकवेदी को तीर्थंकरप्रकृति का बन्धक एवं अनिवृत्तिकरणगुणस्थान के योग्य बतलाया गया है। अतः अन्यथानुपपत्ति प्रमाण से सिद्ध है कि वह भावनपुंसक की अपेक्षा कथन है, अर्थात् उस मनुष्य को तीर्थंकरप्रकृति का बन्धक बतलाया गया है, जो द्रव्यवेद की अपेक्षा पुरुष है, किन्तु भाववेद की अपेक्षा नपुंसक। यह भी षट्खण्डागम में वेदवैषम्य की स्वीकृति एवं तदाश्रित भावस्त्रीद्रव्यपुरुष-वाचक 'मणुसिणी' शब्द के प्रयोग का प्रमाण है। १०.१०. ष. खं. में स्त्रीवेदी मनुष्य को उत्कृष्ट देव-नारकायु के बन्ध का कथन षट्खण्डागम के वेदन-महाधिकारवर्ती वेदनकालविधान में स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी या नपुंसकवेदी मनुष्य को देवों और नारकियों की उत्कृष्ट आयु का बन्धक प्ररूपित किया गया है। यथा तथा कस्यचिद्देवशापात्तदुदयो जायते, इत्येतान् षट्नपुंसकान् निशीथोक्तविशेषलक्षणसम्भवे सति प्रव्राजयेदिति।" वही / पृ. २३१-२३२ । १२५. प्रवचनसारोद्धार (उत्तरभाग) / सिद्धसेनसूरि-शेखरकृत वृत्ति / गा. ७९४ / पृ.२३१-२३२ । १२६. क्षेमकीर्तिवृत्ति / बृहत्कल्पसूत्र / Vol.V, उद्देश्य ४ / भाष्यगाथा ५१६७ / पृ.१३७४-७५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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