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________________ ६५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र.४ पंडए वातिए कीवे, कुंभी इस्सालुए त्ति य। सउणी तक्कम्मसेवी य पक्खियापक्खिते ति य॥ ३५६१॥ सोगंधिए य आसिते वद्धिए चिप्पिते ति य। मंतोसही-उवहते इसिसत्ते देवसत्ते य॥ ३५६२॥ निशीथसूत्र-भाष्य। अनुवाद-"पण्डक, वातिक, क्लीब, कुम्भी, ईर्ष्यालु, शकुनि, तत्कर्मसेवी, पाक्षिका-पाक्षिक, सौगन्धिक, आसक्त, वर्द्धितक, चिप्पित, मन्त्रोपहत, औषधोपहत, ऋषिशप्त और देवशप्त।" १२१ इनमें प्रथम दस प्रकार के नपुंसक दीक्षा के अयोग्य हैं, क्योंकि ये नपुंसकाकृतिनपुंसक अर्थात् द्रव्यनपुंसक या जन्मजात नपुंसक हैं। अन्तिम छह द्रव्यनपुंसक नहीं हैं, अपितु वे द्रव्यपुरुष या द्रव्यस्त्री होते हैं, जो प्रयोजनवश बलपूर्वक नपुंसक बनाये जाते हैं। अतः वे कृत्रिम नपुंसक हैं। उन्हें दीक्षा दी जा सकती है। उनके लक्षण इस प्रकार हैं वर्द्धितक-राजाओं के अन्तःपुर में महल्लक पद प्राप्त कराने के लिए बाल्यावस्था में ही जिस बालक के अण्डकोशों को काटकर अलग कर दिया जाता था, उसे वर्द्धितक (बधिया) कहा जाता था।१२२ चिप्पित-जन्म लेते ही जिस बालक के अण्डकोश अँगूठे और अँगुलियों से मसलकर नष्ट कर दिये जाते हैं, उसे चिप्पित कहते हैं।१२३ मन्त्रोपहत-जिस पुरुष का पुरुषवेद अथवा स्त्री का स्त्रीवेद किसी मन्त्र की सामर्थ्य से निष्क्रिय कर दिया जाता है, उसे मन्त्रोपहत नपुंसक कहा जाता है।१२४ पुरिसाकिई, इह गहणा सेसयाणं भवे त्ति, एवं स्त्रीस्वपि वाच्यम्।" प्रवचनसारोद्धार । उत्तरभाग/ सिद्धसेनसूरि- शेखरवृत्ति / गा.७९४ / पृ.२३१ तथा निशीथसूत्र / भाष्यगाथा ३५६१-६२। १२१. सिद्धसेनसूरि-शेखरवृत्ति / प्रवचनसारोद्धार (उत्तरभाग)/ गाथा ७९४ / पृ.२३१-२३२। १२२. "आयत्यां राजान्तःपुर-महल्लकपदप्राप्त्यादिनिमित्तं यस्य बालत्वेऽपि छेदं दत्त्वा वृषणौ गालितौ भवतः स वर्द्धितकः।" प्रवचनसारोद्धार (उत्तरभाग)/सिद्धसेनसूरिशेखरकृत वृत्ति/ गाथा ७९४/ पृ.२३१ । १२३. "यस्य तु जातमात्रस्याङ्गष्ठाङ्गलीभिर्मर्दयित्वा वृषणौ द्राव्येते स चिप्पितः।" वही / पृ.२३१ । १२४. "तथा कस्यचिन्मन्त्रसामर्थ्यादन्यस्य तु तथाविधौषधीप्रभावात् पुरुषवेदे स्त्रीवेदे वा समुपहते सति नपुंसकवेदः समुदेति तथा कस्यचिन्मदीयतपः प्रभावान्नपुंसको भवत्वयमिति ऋषिशापात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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