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________________ अ०११/प्र.४ षट्खण्डागम/६५३ अथवा ऋणादि के कारण बँधुआ बनाया गया), दुष्ट (कषायदुष्ट, विषयदुष्ट = परिस्त्रियों में गृद्ध), मूढ (वस्तुस्वरूप से अनभिज्ञ), ऋणात (ऋणग्रस्त), जुङ्गित (दूषित-अस्पृश्य जाति से दूषित, हीनकर्म से दूषित शरीर से दूषित = कर चरण, कर्ण आदि से रहित, पंगु कुब्ज, वामन, काणक आदि), अवबद्ध (धन-ग्रहण करने के करण अथवा विद्यादिग्रहण करने के निमित्त से जो कुछ समय के लिए दूसरे के अधीन है), भृतक (भृत्य=किसी के यहाँ नौकरी करनेवाला), और शैक्षनिष्फेटिक (जो मातापिता के द्वारा अपहरण करके दीक्षा के लिये लाया गया हो), ये अठारह पुरुष दीक्षा के योग्य नहीं होते।" ('प्रवचनसारोद्धार'-उत्तरभाग की ७९०-७९१वीं गाथाओं की श्री सिद्धसेनसूरि-शेखरकृत संस्कृतवृत्ति के आधार पर अनुवादित)। इन अठारह प्रकार के पुरुषों में एक नपुंसकपुरुष भी है, जिसे पुरुषनपुंसक कहा गया है। वह स्त्री और पुरुष दोनों का अभिलाषी होता है अर्थात् उसमें (श्वेताम्बरमान्यता के अनुसार) स्त्रीवेद और पुरुषवेद दोनों का उदय होता है। उसे दीक्षा देने में बहुत हानियाँ हैं, अतः वह दीक्षा का पात्र नहीं है "तथा स्त्रीपुंसोभयाभिलाषी पुरुषाकृतिः पुरुषनपुंसकः। सोऽपि बहुदोषकारित्वादीक्षितुमनुचितः।" ११७ वह पुरुषनपुंसक दूसरे का प्रतिसेवन करता है और अपना प्रतिसेवन कराता है-"जो पुरिसनपुंसगो सो पडिसेवति पडिसेवावेति।" ११८ निशीथसूत्र की चूर्णि में स्त्रीनपुंसक का भी कथन है। श्वेताम्बरमतानुसार वह भाव-स्त्रीवेद और भावनपुंसक वेद दोनों का वेदन करती है। द्रव्य (शरीर) से वह स्त्री होती है।१९ . १०.९. श्वेताम्बर-साहित्य में दशविध जन्मजात, षड्विध कृत्रिम नपुंसक ऊपर जिस नपुंसक का वर्णन किया गया है वह पुरुषाकृति-नपुंसक है। वह दीक्षा के अयोग्य अठारह प्रकार के पुरुषों के अन्तर्गत है। जो दस प्रकार के नपुंसक दीक्षा के अयोग्य बतलाये गये हैं, वे नपुंसकाकृति नपुंसक हैं अर्थात् वे द्रव्य से भी नपुंसक होते हैं।१२० ये दस प्रकार के नपुसंक अधोवर्णित सोलह नपुंसकों में परिगणित ११७. सिद्धसेनसूरिशेखरकृतवृत्ति / प्रवचनसारोद्धार (उत्तरभाग) गाथा ७९१ । ११८. निशीथचूर्णि-जिनदासमहत्तर / भाष्यगाथा ३५०६-३५०७। ११९. निशीथचूर्णि-जिनदासमहत्तर / भाष्यगाथा ३५०८ । १२०. "ननु पुरुषमध्येऽपि नपुंसका उक्ता, इहापि चेति तत्क एतेषां परस्परं प्रति विशेष:? सत्यं, किन्तु तत्र पुरुषाकृतीनां ग्रहणं, इह तु नपुंसकाकृतीनामिति, उक्तं च निशीथचूर्णी --- तहिं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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