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६५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११ / प्र० ४
को तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध की बात कही गई है । ११६ इसी प्रकार षट्खण्डागम - सत्प्ररूपणा के "णवंसयवेदा एइंदियप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति" (पु. १ / १, १, १०३) सूत्र में नपुंसकवेदियों का अस्तित्व एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिकरण ( नवम) गुणस्थान तक प्ररूपित किया गया है, जो उनके मुक्तियोग्य होने का सूचक है।
१०.८. तीनों परम्पराओं में द्रव्यनपुंसक की मुक्ति का निषेध
किन्तु दिगम्बर, श्वेताम्बर और श्वेताम्बर - आगमानुयायी यापनीय, तीनों परम्पराओं में द्रव्यनपुंसक की भी मुक्ति का निषेध किया गया है। श्वेताम्बरीय ग्रन्थ निशीथसूत्र की भाष्य-गाथा का कथन है कि अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियाँ और दस प्रकार के नपुंसक दीक्षा के अयोग्य हैं
अट्ठारसपुरिसेसुं वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु ।
पव्वावणा अणरिहा इति अणला इत्तिया भणिया । ३५०५ ॥
निशीथसूत्र - भाष्य में दीक्षा के अयोग्य अठारह प्रकार के पुरुषों का वर्णन निम्न गाथाओं में किया गया है
बाले वुड्ढे णपुंसे य जड्डे कीवे व वाहिए।
तेणे रायावकारी य उम्मत्ते य अदंसणे ॥ ३५०६ ॥
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दासे दुट्ठे य मूढे य अणत्ते जुंगिए इ य। उबद्धए य भयए सेहणिप्फेडियाइ य ॥ ३५०७ ॥
अनुवाद- -" बाल (आठ वर्ष से कम आयु का पुरुष), वृद्ध ( सत्तर वर्ष से अधिक आयुवाला) नपुंसक ( पुरुषनपुंसक= पुरुष होकर भी जो नपुंसक होता है), जड्डु (शरीर - जड्डु = शरीर से अशक्त, करणजड्ड समिति - गुप्ति इत्यादि क्रियाओं के पालन में असमर्थ, भाषाजड्ड - भाषा समझने में असमर्थ ), क्लीब (स्त्रियों के असंवृत अंगोपांगों को देखकर उत्पन्न हुए कामाभिलाष को सहने में जो असमर्थ होता है), व्याधित (रोगग्रस्त ), स्तेन (चोर), राजापकारी (राजद्रोही), उन्मत्त (यक्षादि अथवा प्रबलमोहोदय के वशीभूत), अदर्शन (दृष्टिरहित = अन्धा, स्त्यानगृद्धि आदि दोषों से ग्रस्त ), दास (धनक्रीत
११६. “तित्थयरबंधस्स मणुसा चेव सामी, अण्णत्थित्थिवेदोदइल्लाणं तित्थयरस्स बंधाभावादो । अपुव्वकरणउवसामएसु तित्थयरस्स बंधो, ण क्खवएसू, इत्थिवेदोदएण तित्थयरकम्मं बंधमाणाणं खवगसेडिसमारोहणाभावादो । जहा इत्थिवेदोदइल्लाणं सव्वसुताणि परूविदाणि तहा णवुंसयवेदोदइल्लाणं पि वत्तव्वं । णवरि सव्वत्थ इत्थिवेदम्मि भणिदपच्चएस इथिवे - दमवणिय णवुंसयवेदो पक्खिविदव्वो ।" धवला / ष. खं/ पु.८ / ३, १७७ / पृ.२६१ ।
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