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________________ अ०११/प्र०४ षट्खण्डागम / ६४५ जैसे अनेकार्थक 'सैन्धव' शब्द घोड़ा और नमक दोनों का वाचक होने से प्रकरण के अनुसार घोड़ा या नमक अर्थ को मुख्यार्थरूप से संकेतित करता है, वैसे ही 'मणुसिणी' शब्द प्रकरण या सामर्थ्य के बल से १०९ द्रव्यस्त्री या भावस्त्री अर्थ को वाच्यार्थरूप से अभिहित करता है। पंचम गुणस्थान तक के प्रकरण में अपनी सामर्थ्य (पंचम गुणस्थान तक पहुँचने की योग्यता) के अनुसार उससे द्रव्यस्त्री अर्थ का बोध होता है तथा चौदह गुणस्थानों के प्रकरण में सामर्थ्यानुसार भावस्त्री अर्थ का। ___पाल्यकीर्ति शाकटायन ने भी 'स्त्री' या 'मानुषी' शब्द के मुख्यार्थ (द्रव्यस्त्री) और गौणार्थ (भावस्त्री) दो अर्थ स्वीकार किये हैं। किन्तु लक्षणा के द्वारा गौणार्थ को लक्षित करने के लिए किसी प्रयोजन की आवश्यकता होती है, जैसे 'गौर्वाहीकः' (हलवाहा बैल है) प्रयोग में 'गो' शब्द से वाहीकगत जाड्यमान्द्य आदि धर्मों को लक्षित करने का प्रयोजन वाहीक में उनका अतिरेक दिखलाना होता है। किन्तु 'मानुषी' शब्द से भावस्त्री अर्थ लक्षित करने का कोई प्रयोजन नहीं होता। अतः मानुषी शब्द से भावस्त्री अर्थ गौणार्थरूप से लक्षित नहीं किया जा सकता, अपितु अनेकार्थ होने से 'सैन्धव,' 'कनक', 'लिंग', 'मधु' आदि अनेकार्थक शब्दों की तरह प्रकरण, सामर्थ्य आदि के बल से मुख्यार्थरूप से ही संकेतित किया जा सकता है।१० दिगम्बराचार्यों ने 'मानुषी' शब्द से प्रकरणानुसार दोनों अर्थ मुख्यार्थरूप से ही प्रतिपादित किये हैं। यथा सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं "मनुष्यगतौ मनुष्याणां पर्याप्तापर्याप्तकानां क्षायिकं क्षायोपशमिकं चास्ति। औपशमिकं पर्याप्तकानामेव नापर्याप्तकानाम्। मानुषीणां त्रितयमप्यस्ति पर्याप्तिकानामेव नापर्याप्तिकानाम्। क्षायिकं पुनर्भाववेदेनैव।" (स. सि./१/७/२६/पृ.१७)। १०९. क- अनेकार्थस्य शब्दस्य वाचकत्वे नियन्त्रिते। संयोगाद्यैरवाच्यर्थ-धीकृव्यापृतिरञ्जनम्॥ २/१९॥ काव्यप्रकाश। ख-संयोगो विप्रयोगश्च साहचर्यं विरोधिता। अर्थः प्रकरणं लिङ्ग शब्दस्यान्यस्य सन्निधिः॥ सामर्थ्यमौचिती देशः कालो व्यक्तिः स्वरादयः। शब्दस्यानवच्छेदे विशेषस्मृतिहेतवः॥ भर्तृहरि-वाक्यपदीय (काव्यप्रकाश)२ / १९ । इन पद्यों में उन उपायों का वर्णन किया गया है, जिनसे अनेकार्थक शब्द को किसी एक मुख्यार्थ में नियंत्रित किया जाता है। ११०. उदाहरण के लिए देखिए , मम्मटकृत काव्यप्रकाश २/१९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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