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________________ ६४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०११/प्र.४ भावस्त्रीवेदी-पुरुष में भावपुरुषवेदी-पुरुष की अपेक्षा द्रव्यस्त्री से समानता रखनेवाली कुछ अयोग्यताएँ भी होती हैं। उदाहरण के लिए, जैसे सम्यग्दृष्टि जीव मरकर द्रव्यस्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता, वैसे ही भावस्त्रीवेदी-पुरुषों में भी उत्पन्न नहीं होता।०४ द्रव्यस्त्री में तो संयम ही संभव नहीं है, किन्तु भावस्त्रीवेदी पुरुष को संयम रहने पर भी आहारकऋद्धि प्राप्त नहीं होती, जिससे उसके आहारक-काययोग और आहारकमिश्रकाययोग का अभाव होता है।०५ उसे मनःपर्ययज्ञान और परिहारशुद्धि-संयम की भी प्राप्ति नहीं होती।१०६ अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान के चतुर्थभाग में स्त्रीवेद की निवृत्ति हो जाने पर भी मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि जैसे अग्निदग्ध बीज में अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता, वैसे ही स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के उदय से दूषित जीव में वेदोदय के नष्ट हो जाने पर भी मनःपर्ययज्ञान की उत्पत्ति संभव नहीं है।०७ भावस्त्रीवेदी सम्यग्दृष्टि पुरुष को तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध तो होता है, किन्तु वह तीर्थंकरप्रकृतिसहित उपशमश्रेणी पर ही आरूढ़ हो सकता है, क्षपकश्रेणी पर नहीं। इसलिए उसका तीर्थंकर होना असंभव है।०८ ये द्रव्यस्त्री के तुल्य अयोग्यताएँ भी भावस्त्री के लिए 'मणुसिणी' शब्द के प्रयोग का हेतु हैं। इन कारणों से दिगम्बरजैन-कर्मसिद्धान्त में द्रव्यस्त्री और भावस्त्री. दोनों के लिए मणुसिणी (मनुष्यिनी या मानुषी) शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः यह शब्द दोनों प्रकार की स्त्रियों का वाचक है अर्थात् दोनों ही इसके मुख्यार्थ हैं, क्योंकि दोनों अर्थों में प्रयोग का आधार स्त्रीलिंगविशेष है। अतः यह अनेकार्थक शब्द है। इसलिए १०४. षट्खण्डागम / पुस्तक १/१, १, ९२-९३। १०५. "मणुसिणीणं---एत्थ आहार-आहारमिस्सकाययोगा णत्थि। किं कारणं? जेसिं भावो इत्थिवेदो दव्वं पुण पुरिसवेदो, ते वि जीवा संजमं पडिवजंति। दव्वित्थिवेदा पुण संजमं ण पडिवजंति, सचेलत्तादो। भावित्थिवेदाणं दव्वेण पुंवेदाणं पि संजदाणं णाहाररिद्धी समुप्पज्जदि, दव्वभावेहि पुरिसवेदाणं चेव समुप्पजदि, तेणित्थिवेदे णिरुद्ध आहारदुगं णत्थि, तेण एगारह जोगा भणिदा।" धवला / ष.खं./पु.२/१,१ / पृ.५१५ । १०६. "इत्थि-णqसगवेदाणमुदए आहारदुगं मणपज्जवणाणं परिहारसुद्धिसंजमो य णत्थि।" धवला/ __ष.खं./ पु.२ / १, १/ पृ.५२४। १०७. "अग्गिदद्धबीए अंकुरो व्व इत्थिणqसयवेदोदयदूसियजीवे वेदोदए फिट्टे वि ण मणपज्जवणा णमुप्पज्जदि।" धवला / ष.खं/ पु.२ / १,१ / पृ.५२८ । १०८. क- "तित्थयरबंधस्स मणुसा चेव सामी, अण्णस्थित्थिवेदोदइल्लाणं तित्थयरस्स बंधाभावादो। अपुव्वकरणउवसामएसु तित्थयरस्स बंधो, ण क्खवएसू। इत्थिवेदोदएण तित्थयरकम्म बंधमाणाणं खवगसेडिसमारोहणाभावादो।" धवला / ष.खं/ पृ.८ । ३,१७७ / पृ.२६१ । ख-"खवगसेडीए तित्थयरस्स णत्थि बंधो, इत्थिवेदेण सह खवगसेडिसमारोहणे संभवाभावादो।" धवला / ष.खं./ पु.८ / ३, ७५ / पृ.१३४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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