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________________ ६४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ० ११ / प्र०४ अनुवाद—“मनुष्यगति में पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्यों (पुरुषों) को क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन होते हैं । औपशमिक सम्यग्दर्शन केवल पर्याप्त मनुष्यों को होता है, अपर्याप्तकों को नहीं। मानुषियों को तीनों सम्यग्दर्शन होते हैं, किन्तु पर्याप्तकों को ही, अपर्याप्तकों को नहीं । क्षायिक सम्यग्दर्शन भाववेद से ही होता है, (द्रव्यवेद से नहीं) । " यहाँ पूज्यपाद स्वामी ने मानुषियों को तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शनों का होना बतलाया है और स्पष्ट किया है कि क्षायिक सम्यग्दर्शन भाववेद से ही होता है, द्रव्यवेद से नहीं। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने 'मानुषी' शब्द द्रव्यस्त्री और भावस्त्री (भावस्त्रीवेद के उदय से युक्त पुरुष) दोनों अर्थों में वाच्यार्थरूप से प्रयुक्त किया है। चूँकि द्रव्यस्त्रियों को क्षायिक सम्यग्दर्शन नहीं होता, इसलिए क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दर्शनों के प्रकरण में 'मानुषी' शब्द द्रव्यस्त्री का वाचक है और तीनों सम्यग्दर्शनों के सन्दर्भ में भावस्त्री का । पूज्यपाद स्वामी के अन्य व्याख्यानों में भी 'स्त्री' शब्द का प्रयोग इन दोनों अर्थों में मिलता है। उन्होंने सर्वार्थसिद्धि में भावस्त्रीवेद एवं भावनपुंसकवेद से मुक्ति का प्रतिपादन किया है, किन्तु द्रव्यस्त्रीवेद और द्रव्यनपुंसकवेद से मुक्ति का निषेध किया है। यथा— १. “ वेदानुवादेन त्रिषु वेदेषु मिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिबादरान्तानि सन्ति । अपगतवेदेषु अनिवृत्तिबादराद्ययोगकेवल्यन्तानि ।" (स.सि./ १ / ८ / ३५ / पृ. २२-२३)। २. " वेदानुवादेन स्त्रीवेदा: - - सामान्योक्तसंख्याः ।" (स.सि./१/८/५०/पृ.२६)। ३. " विपरीतमिथ्यादर्शनम् सग्रन्थो निर्ग्रन्थः केवली कवलाहारी, सिध्यतीत्येवमादिः विपर्ययः ।" (स.सि./ ८ / १/७३१ / पृ.२९१-२९२)। ——— ——— ४. “ लिङ्गेन केन सिद्धिः ? अवेदत्वेन त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो न द्रव्यतः । द्रव्यतः पुंल्लिङ्गेनैव।” (स.सि./ १० / ९ / ९३७ / पृ.३७४) । Jain Education International स्त्री उपर्युक्त प्रथम दो वक्तव्यों में पूज्यपाद स्वामी ने स्त्रीवेदी को मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर - पर्यन्त गुणस्थानों का स्वामी बतलाया है, किन्तु अन्तिम दो वक्तव्यों में स्त्रीमुक्ति मानने को विपरीत मिथ्यात्व कहा है तथा द्रव्य की अपेक्षा पुंल्लिंग से ही मोक्ष होना बतलाया है। इससे सिद्ध है कि प्रथम दो वक्तव्यों में जिन स्त्रीवेदियों को अनिवृत्तिबादर - गुणस्थान तक का स्वामी बतलाया है, वे भावस्त्रीवेदी हैं, द्रव्यस्त्रीवेदी नहीं । तत्त्वार्थराजवार्तिककार भट्ट अकलंकदेव का वर्णन भी द्रष्टव्य है For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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