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________________ अ०११/प्र.४ षट्खण्डागम / ६४१ एक कपिल नामक खुड्डग (क्षुल्लक = नवदीक्षित युवा साधु) किसी गृहस्थ (शय्यातर) के यहाँ ठहरा हुआ था। वह उसकी कन्या पर आसक्त हो गया। एक दिन उसने एकान्त पाकर उसके साथ बलात्कार किया। कन्या का पिता जब घर आया तो उसने यह बात पिता से कह दी। पिता अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। उसने कुल्हाड़ी से साधु का लिंगविच्छेद कर दिया, जिससे उसके नपुंसकवेद का उदय हो गया। पश्चात् वह एक वृद्धा वेश्या के यहाँ पहुँच गया। वहाँ उसके स्त्रीवेद का उदय हो गया, जिससे उसके छिन्नलिंगप्रदेश में योनि का आकार बन गया। वेश्या ने उसे स्त्रीवेश में अपने यहाँ रख लिया और वेश्यावृत्ति कराने लगी। इस प्रकार उस कपिल क्षुल्लक के एक जन्म में तीनों वेदों का उदय हुआ।८ अर्थात् श्वेताम्बरपरम्परा यह मानती है कि भावेवद के साथ क्वचित् द्रव्यवेद का भी परिवर्तन हो सकता है। परन्तु निशीथसूत्र की 'अट्ठारसपरिसेसुं' आदि भाष्यगाथा (३५०५) में, जिस पुरुषाकृति-पुरुषनपुंसक का अस्तित्व स्वीकार किया गया है, वह द्रव्य से पुरुष होते हुए भी नपुंसक होता है अर्थात् उसमें वेदवैषम्य होता है।९ तथा विशेषावश्यकभाष्य में एक 'वेदपुरुष' का उल्लेख किया गया है जो द्रव्य से स्त्री या नपुंसक होता है, किन्तु भाव से पुरुष। और वेदवैषम्य के नौ भंग भी बतलाये गये हैं।०१ इससे सिद्ध है कि श्वेताम्बर-परम्परा में भाववेद के परितर्वन के साथ द्रव्यवेद का परिवर्तन भी माना गया है और अपरिवर्तन भी अर्थात् वेदवैषम्य भी स्वीकार किया गया है। १०.४. दिगम्बरग्रन्थों में वेदवैषम्याश्रित भावस्त्री-द्रव्यपुरुषवाचक 'मणुसिणी' या 'मानुषी' संज्ञा ‘मणुसिणी' या 'मानुषी' शब्द दिगम्बरजैन-कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थों में प्रयुक्त असाधारण संज्ञा है। यह लोकप्रसिद्ध मनुष्यजातीय स्त्री (योनि-स्तन आदि अंगों से युक्त स्त्री) तथा कर्मसिद्धान्त-प्रसिद्ध स्त्री (स्त्रैण भावों से युक्त पुरुष), दोनों की वाचक है। दिगम्बरजैन ९८. "--- से वसणं पजणणं (प्रजननं शिश्न) छिण्णं, ततो सो उन्निक्खंतो एगाए जुण्णगणियाए संगहिओ। तस्स तत्थ ततिओ णवंसगवेओ उविण्णो, तओ इत्थीवेदो। तम्मि य वसणपदेसे अहोट्ठो भगो जातो। तीए गणियाए इत्थीवेसेण सो ह्रविओ, संववहरितुमाढत्तो इति अस्य एकस्मिन् जन्मनि त्रयो वेदाः प्रतिपाद्यन्ते।" चूर्णि / निशीथसूत्र-भाष्य / गाथा ३५९ / पृ.१२४ । ९९. "तथा स्त्रीपुंसोभयाभिलाषी पुरुषाकृतिः पुरुषनपुंसकः।" प्रवचनसारोद्धार (उत्तरभाग) वृत्ति / गाथा ७९१ / पृष्ठ २२९ । १००. "स्त्र्यादिरपि पुरुषवेदकर्मविपाकानुभवाद् वेदपुरुषः।" हेम.वृत्ति/विशेषावश्यकभाष्य / गा.२०९० । १०१. क्षेमकीर्त्तिवृत्ति / बृहत्कल्पसूत्र-लघुभाष्य / भाष्यगाथा ५१४७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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