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६४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०.११/प्र०४ १०.३. श्वेताम्बरग्रन्थों में एक ही भव में उभयवेद परिवर्तन भी मान्य
दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में वेदवैषम्य को लेकर कुछ भिन्नताएँ भी हैं। दिगम्बरपरम्परा मानती है कि जो द्रव्यवेद और भाववेद जन्म से प्राप्त होते हैं, वे मृत्यु तक स्थायी रहते हैं, चाहे वे सम हों या विषम। वर्तमान भव में उनमें परिवर्तन नहीं हो सकता। किन्तु श्वेताम्बरपरम्परा में माना गया है कि वर्तमानभव में न केवल भाववेद बार-बार बदल सकता है, अपितु द्रव्यवेद भी कई बार बदल सकता है। और द्रव्यवेद के बदलने पर भाववेद भी बदल जाता है। तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य के टीकाकार श्री सिद्धसेन गणी ने यही प्रतिपादित किया है। वे कहते हैं
"लिंग के तीन भेद हैं-स्त्रीत्व, पुरुषत्व और नपुंसकत्व। वह अप्रकट रहने के कारण लिंग कहलाता है। क्योंकि पुरुषलिंग की निर्वृत्ति (संरचना) के अत्यन्त प्रकट होने पर भी कभी स्त्रीलिंग का उदय हो जाता है, किन्तु वह स्पष्ट रूप से बाहर प्रकट नहीं होता। अथवा कभी नपुंसकलिंग का उदय हो जाता है। इसी प्रकार स्त्री के स्वलिंग की निर्वृत्ति स्पष्ट होती है, तो भी कभी पुंल्लिङ्ग और नपुंसकलिंग का उदय हो जाता है। इसी तरह नपुंसक की स्वलिंगरचना के परिपूर्ण होते हुए भी कभी पुंल्लिग या स्त्रीलिंग की उत्पत्ति हो जाती है, किन्तु उसकी निवृत्ति लक्षित नहीं होती, जिस प्रकार कपिल नामक क्षुल्लक (नवदीक्षित युवा साधु) की लक्षित नहीं हुई थी। यह त्रिविध लिंग ही वेद कहलाता है। जिस कर्म के उदय से पुंस्त्व, स्त्रीत्व, और नपुंसकत्व उत्पन्न होते हैं, उसे लिंग कहते हैं।" ९६
श्री सिद्धसेन गणी ने कपिल नामक क्षुल्लक का दृष्टान्त देकर इस लिंगपरिवर्तन को स्पष्ट किया है। कपिल की कथा 'निशीथसूत्र' की चूर्णि में तथा बृहत्कल्पसूत्र के भाष्य एवं वृत्ति में दी गयी है। वह इस प्रकार है
९६. "लिङ्ग त्रिभेदं-स्त्रीत्वादि, तच्च लीनत्वाल्लिङ्गमुच्यते, यस्मात् पुरुषलिङ्गनिर्वृत्तावतिप्रकटायामपि
कदाचित् स्त्रीलिङ्गमुदेति न च स्पष्टं बहिरुपलभ्यते, नपुंसकलिङ्गं वा, तथा स्त्रियाः स्वलिङ्गनिर्वृत्तावतिस्पष्टायामेव जातुचित् पुन्नपुंसकलिङ्गोदयः, नपुंसकस्याप्येवं स्वलिङ्गनिर्वृत्तावुत्तरकालभाविनी कदाचित् पुंस्त्रीलिङ्गे भवतो न च निर्वृत्तितो लक्ष्यते, कपिवलवदिति सर्वत्र योज्यम्। एतदेव त्रिविधं लिङ्गं वेद उच्यते, यस्य कर्मण उदयात् पौंस्नं, स्त्रैणं, नपुंसकत्वं च भवति तल्लिङ्गम् , अत्राप्यभेदेन निर्देशः पुमान् , स्त्री, नपुंसकमिति।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति २/६/ भाग
१/ पृ.१४६। ९७. उवहय अवकरणम्मिं, सेज्जायर-भूणियानिमित्तेणं। तो कविलगस्स वेओ, ततिओ जाओ दुरहियासो॥
बृहत्कल्पसूत्र / भाष्यगाथा ५१५४/चतुर्थ उद्देश/ पृष्ठ १३७१ ।
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