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अ०११/प्र०४
घट्खण्डागम /६३९ - इस गाथा में पहले पण्डक अर्थात् द्रव्यनपुंसक के लक्षण बतलाये गये हैं कि वह पुरुषों के बीच में सशंकित रहता है, किन्तु महिलाओं के बीच में निःशंक होकर बैठता है तथा उसे प्रमदाओं के कार्य जैसे झाड़ना-पौंछना, चक्की चलाना, भोजन बनाना, पानी भरना आदि अच्छे लगते हैं। इसके बाद कहा गया है कि तीनों द्रव्यवेदधारी मनुष्यों में यह नपुंसकवेद होता है। तीनों वेदों में प्रत्येक वेद के तीन भंग करना चाहिए। जैसे
__ "पुरुषः पुरुषवेदं वेदयति, पुरुषः स्त्रीवेदं वेदयति, पुरुषो नपुंसकवेदं वेदयति। एवं स्त्री-नपुंसकयोरपि वेदत्रयोदयो मन्तव्यः।" ९२
अनुवाद-"पुरुष पुरुषवेद का वेदन करता है, पुरुष स्त्रीवेद का वेदन करता है और पुरुष नपुंसकवेद का वेदन करता है। इसी प्रकार स्त्री और नपुंसक में भी तीनों वेदों का उदय मानना चाहिए।"
___ आगे (शीर्षक १०.८) निशीथसूत्र की दो भाष्यगाथाएँ (३५०६-३५०७) उद्धृत की जायेंगी, जिनमें उन अठारह प्रकार के पुरुषों का वर्णन है, जो दीक्षा के अयोग्य होते हैं। उनमें एक पुरुषनपुंसक नाम का पुरुष है, जो शरीर से पुरुष, किन्तु भाव से नपुंसक होता है-"स्त्रीपुंसोभयाभिलाषी पुरुषाकृतिः पुरुष नपुंसकः।" ९३
ये श्वेताम्बरसाहित्य में उपलब्ध वेदवैषम्य के उदाहरण हैं। श्यामाचार्यकृत पण्णवणासुत्त में एक जगह मणुस्सी को उत्कृष्ट आयु का बन्धक कहा गया है, जो सातवें नरक के नारकियों और सर्वार्थसिद्धि के देवों की होती है। दूसरी जगह सातवें नरक में स्त्री की उत्पत्ति का निषेध किया गया है।५ इससे स्पष्ट होता है कि सातवें नरक की उत्कृष्ट आयु का बन्ध करनेवाली मणुस्सी से अभिप्राय भावमानुषी से है। इस प्रकार यहाँ भी वेदवैषम्य स्वीकार किया गया है।
९१. "सो पुण णपुंसवेदो तिविहे वेदे भवति।--- पुरिसो पुरिसवेदं वेदेति, पुरिसो इत्थीवेदं वेदेति,
पुरिसो णवुसंगवेदं वेदेति। एवं इत्थी-णवंसगा वि भणियव्वा।" जिनदासमहत्तरकृत चूर्णि ।
निशीथसूत्रभाष्य / गा.३५७०। ९२. क्षेमकीर्ति-वृत्ति / बृहत्कल्पसूत्र / Vol.V/ चतुर्थ उद्देश / भाष्यगाथा ५१४७। ९३. सिद्धसेनसूरि-शेखरकृतवृत्ति / प्रवचनसारोद्धार (उत्तरभाग)/गा. ७९१ । ९४. "उक्कोसकालठितीयं णं भंते! आउअं कम्मं किं णेरइयो बंधइ, जाव देवी बंधइ? गोयमा
णो णेरइयो बंधइ, तिरिक्खजोणिओ बंधति, णो तिरिक्खजोणिणी बंधति। मणुस्सो वि बंधति, मणुस्सी वि बंधति, णो देवो बंधति, णो देवी बंधइ।" पण्णवणासत्त / उद्देश २०/सत्र १७४९ /
पृ. ३८४। ९५. "अधेसत्तमापुढविनेरइया णं भंते, कतोहितो, उववजंति? गोयमा! एवं चेव। नवरं इत्थीहितो
(वि) पडिसेधो कातव्वो।" पण्णवणासुत्त / सूत्र ६४६ / पृ. १७४।
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