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६३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० ११/प्र०४ ___ इन आठ प्रकार के पुरुषों में वेदपुरुष उसे कहा गया है जो द्रव्य (शरीर) से स्त्री या नपुंसक होते हुए भी भावपुरुषवेद के उदय से पुरुषत्व (स्त्री से रमण की इच्छा) का अनुभव करता है-"स्त्यादिरपि पुरुषवेदकर्मविपाकानुभवाद् वेदपुरुषः। ९०
भाष्यकार ने भी कहा है-"वेयपुरिसो तिलिंगो वि पुरिसवेयाणुभूइकालम्मि।" (विशे.भा./ गा.२०९३) अर्थात् स्त्री, पुरुष और नपुंसक, ये तीन लिंगवाले मनुष्य भी जब पुरुषवेद का अनुभव करते हैं, तब वेदपुरुष कहलाते हैं।
इसकी वृत्ति में हेमचन्द्रसूरि पुनः स्पष्ट करते हैं कि स्त्री, पुरुष और नपुंसक इन तीन लिंगों में से किसी भी लिंगवाला प्राणी जिस समय तृणज्वाला के समान पुरुषवेद का वेदन करता है, उस समय पुरुष तो वेदपुरुष कहलाता ही है, स्त्री और नुवंसक भी वेद-पुरुष कहलाते हैं-"स्त्री-पुं-नपुंसकलिङ्गत्रयवृत्तिरपि प्राणी यदा तृणज्वालोपमविपाकं पुरुषवेदमनुभवति तदा पुरुषवेदानुभावमाश्रित्य पुरुषो वेदपुरुषः स्त्र्यादिरप्युच्यते।" (हेम.वृत्ति./विशे.भा./गा.२०९३)।
__ इस प्रकार आवश्यकसूत्र के भाष्यकार श्री जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण और वृत्तिकार हेमचन्द्रसूरि दोनों ने वेदवैषम्य की सत्यता को स्वीकार किया है। अन्तर सिर्फ यह है कि ये आचार्य एक ही प्रकार के वेदवैषम्य को जन्म से मृत्यु तक स्थायी न मानकर परिवर्तनशील मानते हैं अर्थात् एक ही भव में कोई स्त्री किसी समय स्त्रीवेद का अनुभव करती है, तो किसी समय पुरुषवेद का अनुभव करने लगती है, पुनः पुरुषवेद का अनुभव समाप्त हो जाता है और स्त्रीवेद का वेदन शुरू हो जाता है। इसके अतिरिक्त यहाँ केवल स्त्री और नपुंसक में पुरुषवेद के अनुभव का वर्णन है, पुरुष में स्त्री या नपुंसकवेद की अथवा नपुंसक में स्त्रीवेद की अनुभूति की चर्चा नहीं है। इसकी चर्चा निशीथसूत्र की निम्न लिखित भाष्यगाथा में है
पुरिसेसु भीरु महिलासु संकरो पमयकम्मकरणो य। तिविहम्मि वि वेयम्मी तिगभंगो होइ णायव्वो॥ ३५७०॥
निशीथसूत्र-भाष्य।
- भावपुरुषस्तु जीव:--- पारमार्थिकः पुरुषो द्रव्याभिलाप-पुरुषादिसर्वोपाधिरहितो निर्विशेषणः शुद्धो जीव एवोच्यते। तत्रेह प्रकृतं प्रस्तुतं भावेन भावपुरुषेण शुद्धेन जीवेन तीर्थकरेणेत्यर्थः।--- द्रव्यपुरुषस्तु द्वेधा-आगमतः, नोआगमतश्च --- ।" हेमचन्द्रसूरिकृत वृत्ति / विशेषावश्यकभाष्य / गाथा २०९०-२०९१ । देखिए , पादटिप्पणी ८९-ख।
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