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________________ अ०११ / प्र०४ षट्खण्डागम / ६३७ आवश्यकचूर्णि में भी कहा गया है कि बाहु और सुबाहु दोनों ने स्त्री - नामगोत्रकर्म निबद्ध किया था - " एवं तेण तित्थगरत्तं निबद्धं, बाहुणा वेयावच्चेण भोगा निव्वत्तियां, सुबाहुणा बाहुबलं, तेहिं दोहिवि इत्थीनामगोत्तं कम्मं निबद्धं । ८e इस प्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में तीन भाववेद और तीन द्रव्यवेद स्वीकार किये गये हैं और इनकी उत्पत्ति के हेतुभूत कर्म भी अलग-अलग माने गये हैं। भाववेद की उत्पत्ति का हेतु चारित्रमोहनीय कर्म माना गया है तथा द्रव्यवेद की उत्पत्ति का निमित्त अंगोपांगनामकर्म । फलस्वरूप जिस जीव में पुरुषांगोपांगनामकर्म के उदय से द्रव्य-पुरुषवेद की उत्पत्ति और चारित्रमोहनीय ( नोकषायवेदनीय) के उदय से भावस्त्रीवेद या भावनपुंसकवेद का उदय होता है, उसमें वेदवैषम्य घटित हो जाता है । इसी प्रकार अन्य विपरीत वेदों का उदय भी वेदवैषम्य का कारण है । १०.२. श्वेताम्बरग्रन्थों में भी वेदवैषम्य मान्य विशेषावश्यकभाष्य में श्री जिनभद्रगणि- क्षमाश्रमण ने आठ प्रकार के पुरुषों का वर्णन किया है १. द्रव्यपुरुष २. अभिलापपुरुष ३. चिह्नपुरुष ४. वेदपुरुष ५. धर्मपुरुष ६. अर्थपुरुष ७. भोगपुरुष ८. भावपुरुष —- — Jain Education International - आगमद्रव्यपुरुष, नोआगम- द्रव्यपुरुष । पुल्लिंगशब्द, जैसे पुरुष, घटः पटः आदि । दाढ़ी-मूँछ आदि पुरुष चिह्नों से युक्त नपुंसक मनुष्यं । पुरुषवेद के उदय से युक्त स्त्री या नपुंसक । धर्मार्जन- व्यापार में रत साधु । अर्थार्जन - व्यापार में संलग्न पुरुष । समस्त भोगोपभोग-सुख का अनुभव करनेवाला पुरुष । तीर्थंकर आदि शुद्ध जीव । ८९ ८८. आवश्यकचूर्णि / आवश्यकसूत्र / गाथा २ / ११०/पृ.१३५ । ८९. क — दव्वाऽभिलाव - चिंधे वेए धम्मत्थभोगभावे य । भावपुरिसो उ जीवो भावे पगयं तु भावेणं ॥ २०९० ॥ विशेषावश्यकभाष्य । " ख – “ अभिलप्यतेऽनेनेत्यभिलापः शब्दः, ततोऽभिलापपुरुषः पुंल्लिङ्गाभिधानमात्रपुरुष इति, घटः पट इत्यादिर्वा। चिह्नपुरुषस्त्वपुरुषोऽपि पुरुषचिह्नोपलक्षितो यथा 'नपुंसकं श्मश्रुचिह्नम्' इत्यादि । स्त्र्यादिरपि पुरुषवेदकर्मविपाकानुभवाद् वेदपुरुषः । धर्मार्जनव्यापाररतः साधुर्धर्म-पुरुषः पारमार्थिकः । अर्थार्जनपरस्त्वर्थपुरुषः । समस्तभोगोपभोगसुखभाग् भोगपुरुषः । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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